Book Title: Jinabhashita 2005 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ लक्ष्मी आदि देवियों के नाम पाये जाते हैं, क्या ये पूज्य वे सर्वथा अपूज्य हैं। भक्ति करना कोई अहसान नहीं है जो गुणदेवियाँ हैं ? कृतज्ञता ज्ञापन की जाये। शासन देवों की जिनभक्ति में श्रद्धा के बजाय केवल नियोग है जो उन की ड्यूटी कर्त्तव्य है। प्रश्न : जिस तरह चक्रवर्ती के परिवार का पूजन न करने पर चक्रवर्ती से सेवकों को फल की प्राप्ति नहीं होती. उसी तरह शासन देवों की पूजा किये बिना जिनेन्द्र से फल प्राप्ति नहीं होती अतः शासनदेव पूजा विधेय है। उत्तर : जिस तरह मनुष्यों में लक्ष्मीबाई, शांति कुमारी, सरस्वती देवी, बुद्धिवल्लभ, कीर्तिधर आदि नाम पाये जाते हैं, नामानुसार उनमें वे साक्षात् पूर्ण गुण नहीं हैं, उसी तरह श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी आदि नाम, देवियों में ही पाये जाते हैं। ये इन गुणों की साक्षात् मूर्तिमंत अधिष्ठात्री देवियां नहीं हैं। ये श्री, ही आदि ६ देवियां षट् कुलाचल वासिनी सचेतन देवियां हैं इसी से तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ३ सूत्र १९ में इनकी एक पल्य मात्र आयु बतायी है देखो ' तन्निवासिन्यो देव्यः श्री ही घृति कीर्ति लक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ' । उत्तर : शासनदेवों को जिनेन्द्र के परिवार के बताना जिनेन्द्र को देवगति का देव (असंयमी) बताना है और शासन देवों को मनुष्यगति का संयमी मनुष्य बताना है यह उल्टी गंगा बहाना है जो जिनेन्द्र तथा देव दोनों का ही अवर्णवाद है। ऐसे अवर्णवादों से कोई पूजा कभी विधेय नहीं हो सकती । उत्तर पुराण पर्व ६३ में गुणभद्राचार्य ने इन्हें व्यंतरियां जिनेन्द्र तीन लोक के स्वामी हैं और शासनदेव उनके किंकर और इन्द्र को वल्लभा बताया है । यथाहैं। मालिक और नौकर को एक बताना मूढता है। तेषामाद्येषु षट्स स्युस्ता : श्री ही धृतिकीर्तयः । बुद्धि लक्ष्मीश्च शकस्य व्यन्तर्यो वल्लभांगनाः ॥ २० ॥ इससे स्पष्ट होता है कि ये गुण देवियां नहीं हैं, देवगति व्यंरियां है अतः पूज्य नहीं हैं (इन्हें कहीं-कहीं दिक्कुमारी और दिक्कन्यका भी लिखा है) इन तथाकथित शासन देवों के मूल में ही गड़बड़ इनकी पूजा की बात तो दूर है वह तो किसी तरह भी समीचीन नहीं हो सकती। इस विषय में और भी विशेष जानने के लिए हमारी पुस्तक "जैन निबंध रत्नावली" के निम्नांकित लेखों का अध्ययन कीजिये लेख नं. २८ - धरणेन्द्र पद्मावती । लेख नं. ३० - प्रतिष्ठा शास्त्र और शासनदेव । लेख नं. ३२ - दस दिग्पाल | लेख नं. ३३ - इसे भक्ति कहें या नियोग । लेख नं. ४० - चौबीस यक्ष यक्षियां । इनके सिवा "पद्मावती पूजा मिथ्यात्व है" नाम का हमारा ट्रेक्ट भी पढ़िये । प्रश्न : शासन के भक्त देवता मानकर कृतज्ञता रूप में अगर शासन देवों की पूजा की जाये तो क्या आपत्ति है ? उत्तर : शासन के भक्त होने में ही अगर शासन देव पूज्य माने जांय तो फिर सभी सम्यक्त्वी व्रती तिर्यंच, मनुष्य भी पूज्य हो जायेंगे किन्तु पूज्यता भक्ति से नहीं आती वह तो संयम से आती है और देव संयम के नितांत अयोग्य हैं अतः 12 दिसम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International प्रश्न : जिस तरह चपरासी या अहलकार को कुछ रकम देने से सरकारी काम सिद्ध हो जाता है उसी तरह शासनदेवों को अर्घ देने से धर्म कार्य सिद्ध हो जाता है। उत्तर : राज्य कर्मचारी को व्यक्तिगत रकम देना रिश्वत है। इसका देने और लेने वाला दोनों कानूनन अपराधी है । उसी तरह शासनदेवों को अर्घ प्रदान करना भी जैन 1 शासन में धार्मिक जुर्म है । प्रश्न : जिन प्रतिमा के साथ शासन देवता क्षेत्रपाल, नवग्रह, गंधर्व, यक्ष, नाग, किन्नरादि की मूर्तियां भी पाई जाती हैं अतः ये सब देवगण पूज्य हैं। उत्तर : जिन प्रतिमा के साथ उक्त देवताओं की मूर्तियां जिनेन्द्र के सेवक, पूजक भक्त रूप में प्रदर्शित की गई है। जैनेतर संप्रदायों में इन देवी-देवताओं को बहुत बड़ा बताया गया है, नशास्त्रकारों ने उन्हीं देवी-देवताओं को जिनेन्द्र सेवक रूप में प्रस्तुत कर जिनेन्द्र की महत्ता - देवाधिदेवता प्रदर्शित की है। साथ होने से ही कोई बराबर हो जाता हो तो अनेक जिनप्रतिमाओं के ऊपर कलश करते हाथी, आसन रूप में कमल और सिंह, पादपीठ में हिरण और २४ चिह्नों के रूप में विविध पशु-पक्षी, वृक्षादि अंकित रहते हैं तो ये सब तिर्यञ्च भी पूज्य हो जायेंगे। मूर्ति पर मच्छर, मक्खी, भ्रमर, पूज्य हो मूषक आदि भी आकर बैठ जाते हैं तो ये भी जायेंगे | मालिक के पास बैठकर मालिक की पगचम्पी करने वाला नौकर भी मालिक हो जायेगा किन्तु ऐसा नहीं है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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