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मालिक, मालिक ही रहता है और नौकर, नौकर ही रहता जखे वसूली सपिय सवासणे ससत्थे य॥ ४३९ ॥ है। इसी तरह जिनेन्द्र के सेवक देवतागण जिनेन्द्र के पास दाऊण पुज्जदव्यं बलि चरुयं तहय जण्ण भायं च। स्थित होने से पूज्य नहीं हो जाते वे तो पूजक ही रहते हैं। सव्वेसिं मंते हिय वीयक्खर णाम जुत्तेहिं ॥ ४४० ।। फलों के साथ रहने वाले छिलके फलों के रक्षक
-देवेसेन कृत भावसंग्रह और फल ही कहलाते हुए भी अनुपयोगी आग्राह्य मलरूप इनमें दशदिग्पालों का आह्वान कर उनसे अादि माने जाते हैं, वही स्थिति शासन देवों की समझनी चाहिये। पूजाद्रव्य (यज्ञांश) ग्रहण करने का निवेदन किया गया है चाहे वे जिनप्रतिमा के साथ हों चाहे अलग, वे हमेशा अपूज्य इसमें क्या तात्पर्य रहस्य सन्निहित है? ही हैं।
उत्तर : उपलब्ध प्रतिष्ठापाठों में वसुनंदिश्रावकाचार प्रश्न : यागमण्डल में अरिहंत के साथ भवनत्रिक के अन्तर्गत ६० गाथाओं का प्रतिष्ठा प्रकरण ही प्राचीन है देवों की स्थापना क्यों की जाती है? इससे क्या भवनत्रिक अन्य (आशाधरादिकृत) सब उसके बाद के हैं। वसुनंदि देव (भवनवासी, व्यंतर-ज्योतिष्क) पूज्य नहीं होते? प्रतिष्ठा प्रकरण में कहीं भी शासनदेवों (भवनत्रिक) को उत्तर : यागमण्डल के मध्य में अरिहंतादि परमेष्ठी
अर्घ्य समर्पण का कोई कथन नहीं है। बाद में प्रतिमा अभिषेक और चारों तरफ भवनत्रिक देवों की स्थापना समवशरण
पाठादि ग्रंथों में एक नई शैली अपनाई है उसका तात्पर्य भी सभा की नकल है। जिस तरह समवशरण सभा के मध्य में
शासनदेव पूजा नहीं है किन्तु सौधर्मेन्द्र द्वारा भवनत्रिक देवों अरिहंत विराजमान होते हैं और चारों तरफ १२ सभाएँ होती
को अर्घ्य समर्पण जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए किया गया है हैं, जिनमें पूज्य तो अरिहंत होते हैं, बाकी तो सब पूजक होते
अर्थात् इन्द्र भगवान् का पंच कल्याणक महोत्सव मनाता है हैं। उसी तरह यागमण्डल की रचना में भी पूज्य तो अरिहंतादि
अगर वह अकेला मनाये तो कोई ठाटवाट नहीं रहता। अत: परमेष्ठी ही होते हैं बाकी अन्य सब पूजक होते हैं। अकेले
इन्द्र अपनी देवगति के चतुर्णिकाय देवों का आह्वान करता है सभापति से सभा नहीं कहलाती। सभी सभासदों (श्रोतागण)
और भगवान् की पूजा करने के लिए उन सबको अर्घ्यसे ही सुशोभित होती है इसी तरह यागमण्डल में शोभा और
पूजाद्रव्य प्रदान करता है इसे ही यज्ञाँशदान (पूजाद्रव्य के परिपूर्णता की दृष्टि से भवनत्रिक देवों को सम्मिलित किया
हिस्से का देना) कहा गया है जो सामूहिक (सम्मिलित) गया है। इसमें पूज्यता का कोई प्रश्न नहीं है।
पूजा का अंग समझना चाहिए। आज भी ऐसी ही शैली
नित्यपूजा और मण्डल विधान पूजा में ही दृष्टिगत होती हैप्रश्न : फिर भी कुछ प्रतिष्ठा-अभिषेक पाठादि ग्रंथों
पूजक मनुष्य मंदिर में आगत अपने साधर्मी भाईयों को में शासनदेवों (भवनत्रिक) को अर्घ्य समर्पण करने का
अपने पूजाथाल में से जिनपूजा के लिए अर्घ्य समर्पण करता कथन क्यों पाया जाता है? यथा
है। जिस तरह यहाँ साधर्मियों को अर्घ्य समर्पण साधर्मी पूजा यागेस्मिन्नाक नाथ ज्वलन पितपते नैकषेय प्रचेतो। नहीं है किन्त वह जिनपजार्थ है, उसी तरह प्रतिष्ठा अभिषेकादि वायोरैदेश शेषोडुप सपरिजना यूयमेत्य ग्रहाग्राः॥ ग्रन्थों में इन्द्र द्वारा भवनत्रिकों को अर्घ्य समर्पण भवनत्रिकदेवमंत्रै भूः स्वः स्वर्धाद्यैरघिगत-बलयः स्वासुदिर्पविष्टाः। पूजा नहीं है लेकिन वह भी जिनपूजार्थ ही है। क्षेपीयः क्षेमदक्षाः कुरुत जिनसवोत्साहिना विघ्नशांतिम्॥
ऊपर जो ३ ग्रन्थ-प्रमाण दिये हैं, उनमें अर्घादि द्वारा १३॥
दिग्पालों को पूजने का तृतीया विभक्ति परक कथन नहीं है - सोमदेवकृत अभिषेक पाठ ( यशस्तिलकचम्पू) किन्त दिग्पाल अर्घादि को ग्रहण करें ऐसा द्वितीया विभक्ति २. पूर्वाशादेश हव्यासन महिषगते नेर्ऋते पाशपाणे। परक कथन है। ऐसा ही कथन अन्य अभिषेक पाठादि में है।
वायो यक्षेन्द्र चन्द्राभरण फणिपते रोहिणीजीवितेश॥ इनमें स्पष्ट और सुसंगत रूप से सिद्ध है कि इन्द्र द्वारा सर्वेप्यायात यानायुध युवति, जनै सार्धमों भू भूर्वः स्वः। दिग्पालादि को अर्घ्य समर्पण जिनपूजार्थ है। स्वयं दिग्पालों स्वाहा गृण्हीत चार्घ्य चरुममृतमिदं स्वास्तिकं यज्ञभागं ॥११॥ की पूजा के लिए नहीं। - पूज्यपाद अभिषेक पाठ
प्रश्न : आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमं । ३. आवाहिऊण देवे सुरवइ सिहि कालणेरिए वरुणे परणे
ते मयाभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यांतु यथास्थितिं ॥
दिसम्बर 2005 जिनभाषित 13
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