Book Title: Jinabhashita 2005 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ अवस्था में प्राप्त अनेक दुखों-चिंताओं-पीड़ाओं से ग्रसित भोले-भाले गृहस्थजन इस प्रकार संकट दूर होने और इष्ट फल की प्राप्ति का लोभ दिए जाने पर सहज ही वीतरागदेव के स्वरूप को भूलकर इस प्रकार की भोगाकांक्षा और निदान के उद्देश्य से किये जानेवाले विधान के कार्यक्रमों में रुचिपूर्वक भाग लेने लगते हैं। एक दिगम्बर जैन आचार्य, जिनका यह विशेष उत्तरदायित्व है कि वे श्रावकजनों को यह सिखाएँ कि वे वीतरागदेव की भोगााकांक्षा एवं निदानरहित एवं स्वात्मधर्म के विकास के उद्देश्य से पूजा करें, स्वयं ही यदि श्रावक के मन में वीतराग भगवान् की भोगाकांक्षा एवं निदान के उद्देश्य से पूजा करने की भूख जाग्रत करते हैं, स्वयं ऐसे साहित्य का सर्जन करते हैं और स्वयं अपनी देख-रेख में उनका आयोजन कराते हैं, तो यह कितने बड़े खेद की बात है! श्रद्धालु श्रावकजन तो आचार्यों और साधुजनों को धार्मिक क्षेत्र में अपना मार्गदर्शक मानते हुए उनके आदेशों-उपदेशों का आँख मींचकर पालन करते हैं। ___ यह देखकर हमें भारी पीड़ा होती है कि हमने महान् वीतराग भगवंतों की गरिमा घटाकर उन्हें रागी-द्वेषी देवी देवताओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। यह उनका भारी अवर्णवाद है। हम उन वीतरागदेव की आराधना के प्रतिफल में धनक्षति, धन की कमी, व्यापार में परेशानी, पुत्र की हानि, विश्वासघात, पुत्र पर संकट, पुत्र द्वारा दुर्व्यवहार आदि संकटों से मुक्ति चाहते हैं और सभी प्रकार के शारीरिक रोग उनसे दूर कराना चाहते हैं, यह हमारी मिथ्या श्रद्धा है। हमारी देवोपासना का उदात्त उद्देश्य वन्दे तद्गुणलब्धये' अब हमने भुला दिया है। हमारे कतिपय आचार्यों एवं मुनिजनों का अब उनके षडावश्यकों में यह सातवाँ आवश्यक और जुड़ गया है कि वे अधिकांश समय अपने भक्तों को शारीरिक बीमारियों एवं लौकिक संकटों से मुक्त कराने के लिए मंत्र, तंत्र, यंत्र, औषधियों आदि का वितरण करते रहते हैं। इसी लोभ से आकृष्ट होकर हमारे मुनि महाराजों के पास उनके अंध भक्तों की भीड़ जमा रहती है। इस प्रवृति के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि यदि मुनि महाराज दुखी श्रावक-श्राविकाओं के कष्ट दूर करने एवं उन्हें लौकिक सम्पत्ति प्राप्त करने के उपाय बताते हैं, तो यह तो वे करुणा तथा वात्सल्य भाव से करते हैं। अन्यथा तो दुखी श्रावकजन अन्य विधर्मियों की शरण में चले जायेंगे। अस्तु, मुनि महाराज का यह मंत्र-तंत्र-औषधि देने का कार्य धर्म प्रभावना का कार्य है, इसमें कोई धर्म की हानि नहीं है, इस विषय में विचार करने पर उपरोक्त तर्क का खोखलापन दृष्टि में आ जाता है। वस्तुत: वीतरार्ग मुनि महाराज को श्रावक की इस श्रद्धा को कि मुझे लौकिक सम्पत्ति प्राप्त हो जाये, तो मैं सुखी हो जाऊँ या यह कि लौकिक संकटों के कारण मेरा अहित हो रहा है, बदलना चाहिए। मुनि महाराजों को तो, उसको, कर्म सिद्धांत पर विश्वास कर, पुण्य-पाप के उदय में समतापरिणाम रखने की शिक्षा देनी चाहिए। सम्यक् श्रद्धा प्राप्त होने पर वह सुधी श्रावक पुण्य-पाप के फल में हर्ष विषाद नहीं करते हुए समतापरिणाम रखता है और सभी परिस्थतियों में निराकुल रहने की वृत्ति अपना लेता है। यही तो धर्म है। वैसे मंत्र-तंत्रादि के द्वारा कर्मोदय के विरुद्ध किसी को न तो संपत्ति प्राप्त कराई जा सकती है और न संकट ही दूर किए जा सकते हैं। यदि कदाचित् ऐसा किया भी जा सकता हो, तो वीतरागी साधु ऐसे राग-द्वेष-जन्य आरंभपरक कार्य कभी नहीं करेंगे। उन्हें यदि किसी दुखी भक्त श्रावक के प्रति करुणा आती भी हो, तो वे उसकी श्रद्धा को समीचीन बनाकर धर्म में स्थित होने के दूरगामी परिणाम देनेवाले समीचीन धर्म की शरण में आने का उपदेश देते हैं। वीतरागी साधु तो श्रावक के जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों की अभिवृद्धि करेंगे, जो कि निराकुलता प्राप्त करने का सच्चा उपाय है। मंत्र-तंत्र-औषधि आदि के वितरण के चक्कर में पड़कर यदि मुनि महाराज स्वयं को रागद्वेष जनक आरंभ में उलझा लेते हैं तो यह उनकी स्वयं की ज्ञान-ध्यान की आराधना में बाधक होता है और उनकी मुनि चर्या को दूषित करता है। सम्यग्दृष्टि श्रावक तो नि:कांक्षित होता है। वह लौकिक सिद्धियों के लिए अथवा संकटों से मुक्त होने के लिए मंत्रतंत्रादि का सहारा कैसे ले सकता है? अब तो मुनिभक्ति का रूप ही बदल गया है। अब तो 'गुणनुराग भक्ति' का स्थान 'लौकिक स्वार्थ साधना भक्ति' ने ले लिया है। परिणामस्वरूप उन मुनि महाराजों एवं उनके भक्तों दोनों में ही अध्यात्म एवं वैराग्य के कहीं दर्शन नहीं होते हैं। अध्यात्म और वैराग्य के अभाव में उन मुनि महाराजों की जीवनचर्या एवं आचरण में शिथिलाचार ने प्रवेश पा लिया है। यह कलिकाल का प्रभाव है या जैन समाज का दुर्भाग्य? मूलचंद लुहाड़िया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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