Book Title: Jinabhashita 2005 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ २० वीं सदी के प्रथमाचार्य प.पू.चा.च. १०८ श्री शांतिसागर महाराज का शासनदेवता-उपासना के बारे में मत : एक प्रमाण प्रा. सौ. लीलावती जैन महाराष्ट्र में सोलापुर से एक मराठी मासिक पत्रिका | थे। जैन समाज से मिथ्यात्व निकालने का और निर्माल्य का 'सम्यक्त्व वर्धक' नाम से निकलती थी। सम्पादक और | त्याग करने का उपदेश मुनिराज हमेशा देते हैं । गत चातुर्मास प्रकाशक : हीराचंद मलकचंद दोशी (काका) सोलापुर थे। में कोन्नर में दिए उपदेश से करीबन दो हजार जैनियों ने १९२३ ई.सं. में आरंभ हुई इस पत्रिका का १ दिसम्बर अंक | अपने घर से खंडोबा, विठोबा, भवानी, यल्लम्मा आदि मिथ्या ४, पृष्ठ १३ पर छपा एक समाचार एक धर्मबंधु ने भेजा है | देवताओं को निकाल दिया है। करीब १५/१६ उपाध्ये (पुजारी) वह प.पू. आ. शांतिसागरजी के शासन देवताओं की उपासना | लोगों ने निर्माल्य का नहीं खायेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा ली है। आज के बारे में क्या विचार थे इस पर स्पष्ट प्रकाश डालने वाला | तक दस हजार जैनियों ने अपने घर से मिथ्या देवताओं को है। उसका हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत करने से पहले हम दि. | निकाला होगा। महाराज ने ऐसा कहा, करीबन २००/४०० जैन समाज को कहना चाहते हैं कि कुछ आचार्य, मुनिगण, | लोगों ने क्षेत्रपाल - पद्मावती आदिशासन देवताओं की उपासना तथा विद्वान् पू.आ. शांतिसागर जी का नाम लेकर यह कहते | नहीं करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा उनका उपदेश सुनकर ली है, ऐसा आये हैं कि पू. आचार्यश्री शासन देवता की उपासना मान्य | उन्होंने (आचार्यश्री ने) कहा। इससे लगता है कि उनके करते थे। अतः शासन देवताओं को पूजना चाहिये। हमने | उपदेश से मिथ्यात्व बिलकुल समाप्त हो जाएगा और अनेक बार यह लिखा है कि जिन्होंने मिथ्यात्व के विरोध में (उपाध्ये) पुजारी निर्माल्य खाना बंद कर देंगे ऐसी बलवती इतना बड़ा कार्य किया तो वे शासन देवताओं की पूजा को आशा निर्माण हो गई है। किस प्रकार मान सकते हैं? चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ में इस यह प्रमाण अपने आप में बिलकुल स्पष्ट है कि जैन प्रकार के संकेत प्रसंगवश आये भी हैं. उन प्रसंगों को भी | दि. समाज को इन प्रमाणों से बोध लेना चाहिये। जो दि. जैन हमने प्रकाशित किया है। किसी पंडित ने जब पू. आचार्यश्री मुनि विद्वान् आ. शांतिसागरजी को मानते तो हैं परन्तु उनके से देवताओं को प्रसन्न करने की सलाह दी तब भी आचार्यश्री | आदेशों को नहीं मानते, उल्टे स्वयं शासनदेवताओं की उपासना ने कहा था कि 'असंयमियों की उपासना कैसे कर सकते करते हैं, उनके पूजा-विधान करवाते हैं । मिथ्यात्व तो फैलाते हैं? आप कैसे पंडित हैं?' ही हैं और कहते हैं कि आ. शांतिसागरजी शासन देवताओं हमारे मत में काल मान के प्रभाव से उस काल में | की उपासना करते थे। वे पू. आचार्यश्री का अविनय ही मिथ्यात्व बहुत फैल गया था। शुद्ध धर्म को मानना देशभर में करते हैं। जैन समाज को चाहिये कि वह आचार्यश्री के बहुत कम प्रमाण में बचा था। इन कठिन परिस्थितियों में प. | आदेशों पर चलें और अपप्रवृत्तियों से बचें। दूसरा प्रमाण आचार्यश्री ने धैर्यपूर्वक मिथ्यात्व पर जो कुठाराघात किये, | विजातीय विवाह के बारे में, पत्रिका 'जैनमित्र' पौषसुदी ५ वे भुलाकर आज भी कुछ लोग अपनी विचारधारा उनके | वीर सं. २४६४, ६ जनवरी, १९३८ अंक ९ वाँ, 'आचार्य नाम पर थोपकर अपनी प्रवृत्ति चला रहे हैं और अपनी | शांतिसागरजी और विजातीय विवाह।' परंपरा विस्तृत करना चाहते हैं। ऐसे अवसरवादी लोगों को पं. सुमेरचंदजी दिवाकर न्यायतीर्थ वकील ने आ. पू. आचार्यश्री की जयजयकार करने का क्या अधिकार है ? | शांतिसागरजी से पूछा कि, 'क्या यह सच है कि आप आहार यह मिथ्यात्व फैलाने का कितना गलत काम आज वे कर | के पूर्व गृहस्थ से प्रतिज्ञा कराते हैं कि विजातीय विवाह रहे हैं, इसका विचार होना जरूरी है। लीजिए, उक्त मराठी आगम विरुद्ध है? ऐसी जो प्रतिज्ञा नहीं लेता वहाँ आप समाचार का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है आहार नहीं लेते?' इसके उत्तर में महाराज ने कहा है कि, श्री मुनि शांतिसागरजी का केशलोंच मक 'आहार दाता के यहाँ उपरोक्त प्रतिबंध की बात मिथ्या है।' यहाँ मँगसर शुक्ला ८ के दिन मुनि शांतिसागरजी का केशलोंच आचार्य शांतिसागरजी महाराज का स्पष्ट मन्तव्य है कि साधु बड़े समारोह के साथ हुआ। उस समय उस गाँव के और | को एक बार आहारविधि न मिलने पर फिर उसी दिन दूसरी बाहरगाँव के मिलकर तीन/चार हजार दि. जैन एकत्रित हुए बार आहाराथ नहा निकलना चाहिए। मि-शेटवाल 22 नवम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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