Book Title: Jinabhashita 2005 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ २. मनुष्यनी : इस शब्द का प्रयोग अधिकांशतः | वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं। पुनः प्रश्न : सिद्धों के भी द्रव्य से पुरुष और भाव से स्त्रीवेदी मनुष्य के लिए किया | जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है? उत्तर : नहीं। गया है। गौणता से कहीं-कहीं पर द्रव्यस्त्री के अर्थ में भी | क्योंकि सिद्धों में जीवत्व उपचार से है और उपचार को सत्य किया गया है। मानना ठीक नहीं है।' ३. योनिमति मनुष्य : इस शब्द का प्रयोग द्रव्यस्त्री भावार्थ : श्री धवलाकार के उक्त प्रमाण के अनुसार के लिए किया गया है। १० प्राणों के अभाव की अपेक्षा से सिद्धों में जीवत्व का उपरोक्त तीनों प्रयोगों को समझ लेने पर यह बात अभाव कहा गया है। दोनों अपेक्षाएं समझकर तथ्य का निर्णय करना चाहिए। स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्य एवं मनुष्यनी शब्द द्रव्यपुरुष अथवा नपुंसक के लिए प्रयोग किये गये हैं। तथा योनिमति जिज्ञासा : आम्नाय क्या होता है? और वे कौन-कौन मनुष्य शब्द स्पष्ट रूप से द्रव्यस्त्री के लिए प्रयोग किया | से हैं? गया है। आगम के अनुसार द्रव्य से पुरुष लिंग वाले और | समाधान : आम्नाय शब्द का प्रयोग विभिन्न स्थानों भाव से तीनों लिंग वाले जीवों को १४ गुणस्थानों का सद्भाव | पर किया जाता है। जैसे दिगम्बर आम्नाय, श्वेताम्बर आम्नाय माना गया है। परन्तु योनिमति अर्थात् द्रव्यस्त्री लिंग वालों को आदि। जैसे तेरहपंथ आम्नाय, बीसपंथ आम्नाय आदि । जैसे मात्र १ से ५ गुणस्थान तक कहे गये हैं। मूलसंघ आम्नाय, काष्ठासंघ आम्नाय आदि। परन्तु शायद प्रश्नकर्ता : सौ. स्मितादोषी,बारामती । आपने इन शब्दों की बजाय स्वाध्याय के एक भेद आम्नाय जिज्ञासा : सिद्धों में जीवत्व क्यों नहीं माना जाता है? के बारे में पूछा है, अत: उसी अपेक्षा से उत्तर दे रहा हूँ : समाधान : जो इन्द्रिय, बल,आयु एवं श्वासोच्छवास, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९/२५ में स्वाध्याय के पाँच भेद इन दश प्राणों से जीता है,उसके जीवत्व कहा जाता है। | कहे गये हैं : वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा,आम्नाय तथा धर्मोपदेश । आचार्यों ने सिद्धों में एक अपेक्षा से जीवत्व माना भी है और इनमें से आम्नाय शब्द की परिभाषा इसप्रकार कही गई है: एक अपेक्षा से जीवत्व नहीं भी माना है। १. सर्वार्थसिद्धिकार ने कहा है, 'उच्चारण की शुद्धि राजवार्तिक १/४ की टीका में इस प्रकार कहा गया पूर्वक पाठ को पुनः पुनः दोहराना आम्नाय है।' है। प्रश्न : 'जो दश प्राणों से जीता है...........' आदि लक्षण २. चारित्रसार में चामुण्डराय देव ने इसप्रकार कहा करने पर सिद्धों के जीवत्व घटित नहीं होता? उत्तर : सिद्धों | है, 'व्रतियों के द्वारा सब श्रेष्ठ आचरणों को जानने वाले और के यद्यपि १० प्राण नहीं हैं, फिर भी वे इन प्राणों से पहले | इसलोक संबंधी फल की अपेक्षा से रहित होकर शीघ्रता या जिये थे, इसलिए उनमें भी जीवत्व सिद्ध हो जाता है। पुनः | धीरता के कारण, पद या अक्षरों का छूट जाना एवं अशुद्ध प्रश्न : सिद्ध वर्तमान में नहीं जीते। भूतपर्व गति से उनमें | उच्चारण आदि दोषों से रहित शुद्ध पाठ का बार-बार वाचन जीवत्व कहना औपचारिक है? उत्तर : यह कोई दोष नहीं है | करना, सोचना,आवृत्ति करना आम्नाय कहलाता है । क्योंकि भावप्राण रूप ज्ञानदर्शन का (चैतन्य रूप भावों का) ३. अनगारधर्मामृत में इस प्रकार कहा गया है, 'पढ़े अनुभव करने से वर्तमान में भी उनमें जीवत्व है। हुए ग्रंथ के शुद्धता पूर्वक पुनः पुनः उच्चारण को आम्नाय उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार राजवार्तिककार सिद्धों में | कहते हैं।' भी जीवत्व मानते हैं, परन्तु श्री धवला पु. १४,पृष्ठ १३ पर वर्तमान में बहुत से साधर्मी भाई एक स्थान पर मिल इस प्रकार कहा गया है, 'आयु आदि प्राणों का धारण करना | बैठकर इष्टोपदेश अथवा भक्तामर स्तोत्र आदि पाठों का जो जीवन है । वह अयोगी के अन्तिम समय से आगे नहीं पाया शुद्ध उच्चारण पूर्वक पाठ करते हैं, उसे आम्नाय स्वाध्याय जाता, क्योंकि सिद्धों के, प्राणों के कारणभूत आठों कर्मों का कहा जाता है। अभाव है। इसलिए सिद्ध जीव नहीं हैं। अधिक से अधिक - नवम्बर 2005 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36