Book Title: Jinabhashita 2005 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ ग्रन्थसमीक्षा धर्म के तत्त्व और सत्य से साक्षात्कार करानेवाला प्रकाशस्तम्भ सुरेश जैन 'सरल' ग्रन्थ का नाम : सत्यार्थ दर्शन (प्रथम भाग) भी करती हैं वे तीन काल, छह द्रव्य, नौ पदार्थ, षटकाय, छह लेश्याएं, पंचास्तिकाय, व्रत, समितियां और चार गतियों ग्रंथकार : मुनिश्री प्रबुद्ध सागर जी सहित सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र के भेदों को पाठकों साईज : ए-४, पृष्ठ संख्या- २६४, सजिल्द तक सुगम-शैली में प्रस्तुत करने की उच्च पात्रता रखते हैं। मूल्य : १५१/- मात्र टीका लेखन की परम्परा को नूतन आयाम प्रदान प्रकाशक : दिगम्बर जैन समाज, जबलपुर | करते हुए उन्होंने विषय वस्तु को बोधगम्य बना देने की प्राप्ति स्थान : विद्याश्री ग्राफिक्स, १७९, जवाहरगंज, | भावना से सूत्र का मूल स्वरूप, शाब्दिक अर्थ, विवरण, कछियाना चौक, जबलपुर (म.प्र.) | शंका और समाधान प्रस्तुत करते हुए, उत्थानिकाओं के 'सत्यार्थ दर्शन' शीर्षक पढ़कर आभास होता है कि | माध्यम से एक दूसरे सूत्र को भारी सोचविचार के साथ ग्रंथ में सत्य का साक्षात्कार कराया गया होगा, किन्तु जब ग्रंथ | जोड़ा है। सर्व साधारण को यह ग्रन्थ मोक्ष संबंधी प्रश्नों के का अवगाहन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि सत्य के साथ | समाधान जानने का उत्तम हेतु है। (सचाई के साथ) आत्मतत्त्व का बोध कराया गया है। धर्म जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य इसमें देखने मिला वह में तत्त्वचर्चा होती है यह वाक्य वर्षों से सुनने में आ रहा है, यह कि तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रों का पहले धवला ग्रन्थ किन्तु तत्त्व चर्चा है क्या वस्तु, यह प्रस्तुत ग्रंथ पढ़कर ही प्रथम से, फिर सप्तम से, अष्टम से और त्रयादेश से विश्लेषण जाना जा सका है। किया गया है। इतना ही नहीं, मुनिवर के तलस्पर्शी अध्ययन ___नाम के अनुकूल, यथानाम तथा गुण, का सम्पूर्ण | की जानकारी, क्रमशः पाठक के चित्त में चढ़ता जाता है बोध कराने वाली यह कृति और उसके कर्ता (कृतिकार) | जब वह देखता है कि प्राचीन ग्रंथ प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, मुनिश्री प्रबुद्धसागर जी का वास्तविक विरद इस ग्रंथ से ही | अष्टपाहुड, मूलाचार भाग-एक, भाग-दो एवं भगवती आराधना समझा जा सकता है। वे प्रबुद्ध हैं तप में, प्रबुद्ध हैं संयम में | से भी इसका गहरा तालमेल स्पष्ट किया गया है, इस आधार और प्रबद्ध हैं लेखन में। ग्रंथ पढ लेने के बाद विश्वास हो पर यह पूरा कार्य 'शोध प्रधान ग्रन्थ' की गरिमा भी पाता है गया कि उनके नाम से पहले, उन्हें अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी | और पूर्व लिखित टीकाओं के समक्ष ज्ञान की नई-नई किरणें लिखा जाना शतप्रतिशत सही है। वे प्रज्ञाश्रमण तो हैं ही। प्रदान करने में सक्षम है। २२२ पृष्ठ के ग्रन्थ पर 33 पृष्ठ की ईसा शताब्दी पाँच के समीप अपना प्रकाश बिखेरने प्रस्तावना मंदिर पर शिखर की तरह, शोभायमान है। मात्र वाले अध्यात्म पुरुष आचार्य उमास्वामी महाराज ने जैन प्रस्तावना से ही आगम की अनेक गुत्थियां सुलझती हुई मिल जाती हैं। दर्शन और जैनसिद्धान्त का पोषक ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र का लेखन किया था, तब से अब तक अनेक संतों और विद्वानों ने उस ___ मुनिवर प्रबुद्धसागर जी की यह कृति उनकी प्रज्ञा की पर अनेक टीकाएं लिखीं हैं, किन्तु मुनिपुंगव प्रबुद्ध सागर | धरोहर तो है ही, उनकी साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग भी जी द्वारा यह 'सत्यार्थ दर्शन' नाम से लिखित टीका धर्म के | है। नित्य - स्वाध्याय के योग्य यह ग्रन्थ घरों, पुस्तकालयों समग्र का, सरल प्रस्तुतीकरण है। यह एक तरफ पाठकों को | और मंदिरों में सदियों तक अपना स्थान बनाये रहेगा। तत्त्वार्थसूत्र की ऊँचाई तक पहुंचाने नि:सृयणी का कार्य २९३, सरल कुटी, गढ़ा फाटक वार्ड, करती है तो दूसरी ओर मुनिरत्न के आगम-ज्ञान का अनावरण जबलपुर-४६२००२ (म.प्र.) नवम्बर 2005 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36