Book Title: Jinabhashita 2005 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ ऐलक-चर्या क्या होनी चाहिये और क्या हो रही है? स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया हमारे कितने ही भाई ऐलक और मुनि में इतना ही | अध्यधिव्रतमारोहेत्पूर्वपूर्वव्रतस्थितः (सोमदेवकृत भेद समझते हैं कि ऐलक लंगोट लगाते हैं और मुनि लंगोट | यशस्तिलक ४४ वां काव्य) नहीं लगाते नग्न रहते हैं। इसके सिवाय दोनों की चर्या में | स्थानेष्वेकादशस्वेवं स्वगुणाः पूर्वसद्गुणैः। और कोई अन्तर नहीं समझते। और ऐलक जी भी स्वयं | संयुक्ताः प्रभवन्त्येते श्रावकाणां यथाक्रमम् ॥५४९॥ ऐसा ही समझते हैं। किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है और (वामदेवकृत भावसंग्रह) आगम भी ऐसी साक्षी नहीं देते। शास्त्रों में बाह्यवेश के व्रतादयो गुणा दर्शनादिभिः पूर्वगुणैः सह क्रमप्रवृद्धाः सिवाय, दोनों की चर्या में भी कुछ अन्तर जरूर रखा है। पर | भवन्ति। (चामुण्डराय कृत चारित्रसार संस्कृत पृष्ठ २)। वह अन्तर आज लोप किया जा रहा है और बहुत कुछ लोप सकलकीर्ति ने 'धर्मप्रश्नोत्तर' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ हो भी चुका है, जिसका भान विद्वानों तक को नहीं होता। ६० में उत्कृष्ट श्रावक कौन कहलाता है? इस प्रश्न का किन्तु तद्विवषयक आगमों के देखने वालों को उक्त भेद उत्तर देते हुए लिखा है कि, 'जो अपनी पूर्ण शक्ति से ग्यारह स्पष्ट नजर में आने लगता है,वह कैसे छिपाया जा सकता प्रतिमाओं का (न कि एक ११वीं का) पालन करते हैं, वे उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं।' ऐलक यह एक श्रावक का उत्कृष्ट लिंग है। इसके | ग्रन्थों के इस कथन के अनुसार ऐलकों को, जो कि ऊपर मुनि होने के अतिरिक्त और कोई श्रावक का दर्जा | ११वीं प्रतिमा के धारी होते हैं नीचे की दसों प्रतिमाओं का नहीं। इसी अभिप्राय से किन्हीं ग्रन्थों में उनका लघुमुनि, | पालन करना चाहिये किन्तु आजकल के प्रायः ऐलक प्रोषध देशयति, मुनिकुमार या ऐसे ही किसी नाम से उल्लेख | | नाम की चौथी प्रतिमा का जिसमें अष्टमी-चतुर्दशी को चार किया गया है। जब तक शरीर पर वस्त्र का एक धागा भी प्रकार के आहार का त्यागरूप प्रोषधोपवास करना होता है पड़ा रहेगा तब तक मुनि नहीं कहाये जा सकते, फिर उनके | कोई पालन नहीं करते। वे तो अपने को मुनि की तरह अतिथि पास तो वस्त्र की बड़ी सी कौपीन रहती है। इसलिए ऐलकों | बतलाते हैं। कदाचित् किसी ग्रन्थ में प्रसंगोपात्त कहीं उन्हें की मान्यता और चर्या ऐलकों ही के अनुरूप होनी चाहिये, | अतिथि लिख दिया हो, तो उसका यह अभिप्राय कदापि न कि मुनि के तुल्य। लेकिन हम देखते हैं कि ऐलक पद | नहीं हो सकता कि पर्व तिथियों में उनके लिए उपवास करने के लिए पूर्वाचार्यों ने जो कुछ सीमा बाँधी थी आज उसका | का नियम टूट गया समझ लिया जावे । वहाँ अतिथि शब्द को उल्लङ्घन किया जा रहा है। भिक्षुक अर्थ में लेना चाहिए, क्योंकि ऐलक भिक्षाभोजी होते ग्रन्थों में लिखा है कि जो जिस प्रतिमा का धारी है। हैं। अगर अतिथि शब्द का यह मतलब न लिया जावेगा तो उसे उससे नीचे की प्रतिमाओं का पालना भी अनिवार्य है। | आचार्यों की आज्ञा एक दूसरे के विरुद्ध पड़ेगी। प्रसिद्ध आचार्य स्वामी समन्तभद्र के 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थ को बल्कि निम्नलिखित ग्रन्थों में ११ वी प्रतिमा का स्वरूप कौन नहीं जानता। जैन विद्यालयों के छोटे-छोटे विद्यार्थी | वर्णन करते हये उसके धारी को पर्वतिथियों में उपवास तक उससे परिचित हैं, उसमें साफ लिखा है कि करने की खासतौर से प्रेरणा की गई हैश्रावक पदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु। उववासं पुणणियमा चउव्विहं कुणई पव्वेसु॥३०३॥ स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः॥१३६॥ (वसुनन्दिकृत श्रावकाचार) । अर्थ-अर्हन्तदेव ने श्रावकों के ग्यारह पद बतलाये | पर्वसु चोपवासं नियमतश्चतुर्विधं कुरुते। (तत्त्वार्थवृत्ति हैं। उनमें अपनी प्रतिमा के गुण पहिले की प्रतिमाओं के | भास्करनन्दि कृत अ. ७ , सू. ३९, पृष्ठ १८१)। गुणों के साथ-साथ अनुक्रम से बढ़ते हुये रहते हैं। कुर्यादेव चतुष्पामुपवासं चतुर्विधं ॥ ३९॥ यही बात निम्न ग्रन्थों में भी पायी जाती है - | (आशाधरकृत सागारधर्मामृत अ० ७)। 14 नवम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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