Book Title: Jinabhashita 2005 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ स्वाध्याय : दुःखमुक्ति का श्रेष्ठ उपाय ब्र. अन्नू जैन भारतीय साधना-पद्धति में मन की शान्ति, चित्त की । स्वाध्याय में लम्बाई-चौड़ाई का नहीं, गंभीरता का महत्व है। शुद्धि और निर्विकल्प समाधि की उपलब्धि हेतु अनेक | आचार्य श्री विद्यासागरजी अपने प्रवचनों में कहते हैं कि, उपाय निर्दिष्ट हैं, उसमें एक है स्वाध्याय। आलस्य का त्याग | 'तुमने कितना पढ़ा यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि और ज्ञान की आराधना को स्वाध्याय कहते हैं। स्वाध्याय | जीवन में कितना उतारा, कितना आत्मसात् किया।' इसलिए मन की खुराक है। स्वाध्याय का हेतु पांडित्य की प्राप्ति | कहा है, कुछ पुस्तकें चखी जाती हैं, कुछ चबायी जाती हैं, नहीं, परिणामों की निर्मलता है। कुछ निगल-निगलकर खायी जाती हैं और कुछ पचायी आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं, जैसे धागा सहित | जाती हैं। सुई गुमती नहीं है, वैसे ही सम्यग्ज्ञान-सहित आत्मा संसार | जिस अध्ययन से जीवन-दर्शन उपलब्ध हो, अन्तरमें भटकती नहीं है। स्वाध्याय से एक ओर ज्ञान की वृद्धि | मुखता का विकास हो, अच्छे संस्कारों का जागरण हो और होती है, क्षमताओं का विकास होता है, मस्तिष्क चिन्तनशील | विचारों में प्रौढ़ता आती हो, वही स्वाध्याय के रूप में स्वीकृत होता है, ज्ञान के नये स्रोत खुलते हैं, ज्ञान पिपासा बढ़ती है, | है। इसके लिये रुचि का परिष्कार और उच्च कोटि के ज्ञान जाग्रत और जीवन्त बना रहता है, कठिन तथ्यों को | सत्त्वशील साहित्य का चुनाव अपेक्षित है। ऐसे साहित्य का समझने की क्षमता आती है, वहीं दूसरी ओर स्वाध्याय से | गंभीर अध्ययन सामान्य से सामान्य व्यक्तित्व को नई आभा, हमें जीवन को आदर्श और ऊँचा उठाने की प्रेरणा मिलती है | नई गरिमा प्रदान करता है। और वह हमारे चारित्र-निर्माण में सहायक होता है। शरीर | एक युवक ने किसी सिद्ध योगी से पूछा, 'जीवन को को स्वस्थ रखने के लिए जिसप्रकार पौष्टिक आहार की | आनन्दित और दीप्तिमान बनाने का उपाय सुझाएँ ?' योगी ने आवश्यकता होती है, उसीप्रकार मन को स्वच्छ और बुद्धि | मात्र तीन शब्दों में समग्र जीवन-दर्शन उड़ेल दिया। वे शब्द को प्रखर बनाने के लिए स्वाध्याय की आवश्यकता होती हैं, 'सुविचार, सत्संगति और सत्साहित्य का वाचन।' है। स्वाध्याय मस्तिष्क का रसायन है। इससे मस्तिष्क उपनिषद में कहा गया है, 'जैसे अरणि-स्थित आग को पोषण मिलता है। उसका विकास होता है। इससे मन, मंथन के बिना प्रकट नहीं होती, वैसे ही आत्मस्थ ज्ञानदीप, | बद्धि के विकार मिटते हैं. चित्त की विकल्पशीलता समाप्त योग स्वाध्याय के बिना प्रज्ज्वलित नहीं होता।' | होती है। मस्तिष्क चिन्तनशील होता है। सृजनात्मकता के गुरुकुल में समस्त विद्या-शाखाओं को पूर्ण कर घर जाते हुए | विकास को अवसर मिलता है, नेतृत्व के लिए क्षमता शिष्य को गुरु अन्तिम शिक्षा के रूप में कहते हैं, 'स्वाध्यायान् | विकसित होती है, ज्ञानपिपासा बढ़ती है। मा प्रमद:- स्वाध्याय में प्रमाद मत करना।' श्रीकृष्णजी ने ___स्वाध्याय से हमारा वैचारिक-स्थल ऊँचा उठता है, गीता में कहा, 'स्वाध्याय महायज्ञ है।' जैन शास्त्रों में स्वाध्याय | गलत विचारों को सही दिशा मिलती है। स्वाध्यायी की पूरी को अन्तरंग तप और दुःख मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय माना है। मानसिक शक्ति उसके ज्ञानवर्द्धन और व्यक्तित्त्व निर्माण में जैनमुनि की चर्या का यह अभिन्न अंग है। स्वाध्याय दो ही लगती है और सामाजिक-प्रतिष्ठा बढ़ती है। अच्छी पुस्तकें भागों में विभक्त किया जा सकता है : १. सद्ग्रन्थों का | वे प्रकाश-गह हैं, जो समय-सागर के मध्य खडे किए गए अध्ययन मनन, २. आत्मनिरीक्षण या स्वप्रेक्षा। स्वाध्याय का मनन और वाचन, ये मनुष्य को सदा स्वाध्याय का दूसरा एवं मौलिक अर्थ है, स्वयं को स्वाभ जीवन्त रखते हैं। वाचन से विचारों में नवीनता आती है और जानना, स्वयं को देखना, स्व का प्रत्यक्ष परिचय, स्वयं के मननशीलता से विचार परिष्कृत होते हैं, दृष्टि पवित्र होती है। अंतस् का स्पर्श । ग्रन्थों के वाचन परायण से दुनियाँ को जाना पश्चिमी विचारक फ्रांसिस वेकन लिखते हैं, 'अध्ययन हमें जा सकता है, विभिन्न विद्या-शाखाओं में पारगमिता प्राप्त आनन्द प्रदान करता है, अलंकृत करता है और क्षमता प्रदान की जा सकती है, किन्तु स्वयं को नहीं जाना जा सकता। करता है।' उपनिषद् में कहा गया, 'युवाध्यायकः' युवा वह शास्त्रीय ज्ञान से मात्र जानकारियाँ, सूचनायें एकत्रित की जा है जो स्वाध्यायशील है। सकती हैं, पर चैतन्य के रूपान्तरण की आशा नहीं की जा पढ़ने और स्वाध्याय करने में मौलिक अन्तर है। | सकती। इसलिए कहा गया है कि पहले अपने आप को -नवम्बर 2005 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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