Book Title: Jinabhashita 2005 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ सम्पादकीय साकांक्ष पूजा एक प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य के सान्निध्य में, उन्हीं के द्वारा रचित 'नवग्रह शांति विधान' के आयोजन की पत्रिका देखने को मिली। पत्रिका में विधान के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि आप विधान में भाग लेकर, श्री जिनेन्द्र आराधना कर, ग्रहपीडा से मुक्ति प्राप्त करें एवं पुण्यार्जन करें। नीचे विधान के उद्देश्य को अधिक स्पष्ट करने के लिए मोटे अक्षरों में निम्न प्रकार लिखा है - नवग्रह शांति विधि : ग्रहों की अशुभता से होने वाले अरिष्ट निवारण अनुष्ठान । सूर्यग्रह : हृदयरोग, नेत्ररोग, उदरविकार, धनक्षति, ऋण, झूठे अभियोग, प्रतिष्ठाहानि आदि। चन्द्रग्रह : मानसिक तनाव, चिन्ता, फेंफड़े का रोग, माता की बीमारी, दुर्बलता, धन की कमी, रक्त का प्रकोप इत्यादि। मंगलग्रह : पराक्रम का अभाव, शीर्ष पुढे, आंतरिक मांसपेशियाँ, तीव्रज्वर, रक्तविकार, फोड़े-फुसी, होंठ फटना इत्यादि। बुधग्रह : त्वचारोग, दन्तविकार, हाथ-पैर की नसों में विकार, वाणीदोष, व्यापार में परेशानी, बुद्धि में कमी। गुरुग्रह : पुत्र की हानि, गले में खराबी, विवाह में देरी, ज्ञान की कमी, स्मरण-शक्ति-क्षीण इत्यादि। शुक्रग्रह : खुशी में गम आते हैं, गुप्तेन्द्रिय पीड़ा, मस्तिष्क में नजला-जुकाम आदि। शनिग्रह : अग्निकाण्ड, दुर्घटना, अयोग्यसंतान, शरीर के निचले भाग पैर तलुवे, स्नायुपीड़ा, धीमी गति से कार्य होना या रुकावटें आना आदि। राहुग्रह : सिर पर चोट, राजकोट का शिकार, गैस, विचारों में अस्थिरता, लम्बी बीमारी, हृदयरोग इत्यादि। केतग्रह : विश्वासघात, मूत्रविकार, पत्र पर संकट एवं पुत्र द्वारा दुर्व्यवहार,अचानक परेशानी, जिगर, हाथ पैर में सूजन, बवासीर इत्यादि। विधानपूजा की पुस्तक हाथ में नहीं होने के कारण यह तो जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकी कि उक्त प्रत्येक ग्रह की अनिष्टता के निवारण के लिए किसकी पूजा का विधान किया गया है। संभावना के आधार पर कदाचित् यह माना जा सकता है कि भिन्न-भिन्न ग्रहों के अनिष्ट के निवारण के लिए भिन्न-भिन्न तीर्थंकर भगवन्तों की पूजा का विधान किया गया होगा। इस प्रसंग में प्रथमतः विचारणीय बात तो यह है कि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा का उद्देश्य केवल आध्यात्मिक ही होना चाहिए। पूजक पूजा के द्वारा जिनेन्द्र भगवान् के गुणों के स्मरण पूर्वक अपने परिणामों की विशुद्धि प्राप्त करता है और आत्मगुणों अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का विकास चाहता है। सम्यग्दृष्टि पूजक तत्त्वज्ञान के बल पर दो कारणों से जिनेन्द्रदेव अथवा पंचपरमेष्ठी की पूजा के प्रतिफल में किसी भी प्रकार के लौकिक वैभव को प्राप्त करने अथवा लौकिक संकट या कष्ट दूर करने की इच्छा नहीं रखता है। पहला कारण तो यह है कि वह सच्चे देव का स्वरूप जानता है और उस पर दृढ़ श्रद्धा रखता है। वह यह जानता है कि देव वीतरागी हैं तथा अपरिग्रही हैं, अत: वे पूजक पर उसकी पूजाभक्ति से प्रसन्न नहीं होते और फलस्वरूप उसको धन वैभव पुत्र आदि कोई वस्तु दे नहीं सकते और न उसके किसी संकट अथवा कष्ट का निवारण ही कर सकते हैं। दूसरा कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि पूजक को यह दृढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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