________________
मानते वरन् चाण्डाल उसे कहते हैं जो सज्जनों को प्राणांत कष्ट | 12. महा. वन. २०७-७२ पहँचाते हैं। (39) जैसा कि खलनायक शकार ने नायक चारुदत्त को | 13. महा.अनुशासन, ११४-२ पहुँचाया था। किन्तु मरण तुल्य कष्ट सहने के बाद भी चारुदत्त का | 14. महा. अनुशासन ११४-४ महापराक्षी शकार को अभय दान / जीवन प्रदान करना उनकी | 15. महा. अनुशासन ११५-२३ अहिंसा प्रवृत्ति को उद्घाटित करता है। (40) इस प्रकार नाटककार | 16. गीता-१-३५ शूद्रक ने भी अपने नाटक में चारुदत्त के द्वारा उदात्त अहिंसा धर्म | 17. गीता १६-२,३ का ही समर्थन कराया है।
18. गीता १७-१४,१५,१६,१७ नागानंद नाटक के पंचम अंक में गरुड़ असंख्य प्राणियों | 19. देवद्विजगुरुपूजनं शौचमार्जवम्। की हिंसा करने के कारण पश्चाताप करता है तथा नाटक के नायक ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरंतप उच्यते ॥ गीता १७-१४ जीभूत वाहन से उससे मुक्ति के उपाय हेतु प्रार्थना करता है। | 20. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिनिन्द्रयनिग्रहः एतं सामप्तिकं धर्म जीमूतवाहन उसे भविष्य में हिंसा कर्म से विरत होने का उपदेश | चातुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः ॥ मनु. १०-६३ देता है। गरुड़ प्रतिज्ञा करता है कि आगे कभी भी वह हिंसा चरण | 21. अहिंसयेन्द्रिया संग वैदिकैश्चेवकर्मभिः। नहीं करेगा । (41) इस प्रकार नागानंद नाटक मे हिंसा व्यापार में तपसश्चरणैश्चाग्रैः साधयन्तीह तत्पदम्॥ वही ६-७५ निमग्न गरुड़ का अहिंसा धर्म में प्रवृत्त होने का प्रभावी वर्णन | 22. उनं न सतवेष्वधि को बबाधेतस्मिन्वने गोप्तरि गाहमाने। रघु. मिलता है।
२-१४ अहिंसा इस देश की संस्कृति है। अहिंसा हमारी जीवन | 23. बुद्धचरित २-११ पद्धति है। अहिंसा भारत का दर्शन है। अहिंसा परम सत्य है। 24. वही २-४९ अहिंसा परम तप है। अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा इस देश की | 25. सौन्दर. १-१३ पहचान है। भारतीय दर्शन का पोषक तत्त्व सार्वभौमिक कल्याण |
| 26. वही ३-३० चेतना है और अहिंसा की अवधारणा उसका मूलाधार है। अहिंसा | 27. वही ३-३७ की इस मांगलिक अवधारणा से संस्कृत वाङ्मय ओतप्रोत है। 28. किरात. ६-२२ सन्दर्भ
29. नैषघ. १-१३५ 1. ऋ. १-८९-१०, अथर्ववेद में यह मंत्र क्रम संख्या ७-६-१ पर प्राप्त है।
30. नीति. २५ नकिर्देवा मिनीमसि न किरा योपयामसिमन्त्र श्रुत्यं चरामसि। 31. कादम्बरी, चौखम्बा प्रकाशन (१९५३) पृ. १२४
पक्षेमिरपिकक्षभिरत्राभि सं रभामहे ॥ वही-वही-१३४-७।। 32. वहीं पू.१७३ 3. वेदान्तसारः सम्पादक रामशरण शास्त्री, चौखम्बा, विद्याभवन 33. पंचतंत्र-काकोलूकीयम् पद्य ५ बनारस प्रकाशन (१९५४)पृ. 3
34. पंचतंत्र प्रकाशक पंडित पुस्तकालय, काशी (१९५२) पृ.३७० 4. उषा वै अश्वस्य मध्यस्य शिरः । सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणः | 35. हितोपदेश-प्रकाशक बैजनाथ प्रसाद बुक सेलर, बनारस बृहदारण्यकोपनिषद् १-१-१
(१९५२) पृ. ४२ 5. निरूक्त पंचाध्यायी - सम्पादक म.म.छज्जूराम शास्त्री पृ.२५ | 36. अभिज्ञान शाकुन्तलम् - प्रकाशक ग्रंथम रामबाग, कानपुर 6. वाल्मीकि बाल.-सर्ग 2-पद्य संख्या 5
(१९७५) पृ.३५ 7. वाल्मीकि. अरण्य.सर्ग 9 पद्य संख्या १०,१२,२५, ३१, ३२ | 37. अभिज्ञान. ४-९ धर्मरता: सत्पुरुषैः समता
38. विक्रमोर्वशीयम् चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी प्रकाशन स्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः।
(१९५५)पृ.२१२-२१३ अहिंसका वीतमालश्च लोके
39. मृच्छ ०-१०-२२ भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः ।वाल्मीकि, अयोध्या. १०९- | 40. मृच्छकटिक, चौखम्बा संस्कृत सीरिज आफिस प्रकाशन ३६
(१९५४) पृ.६०० 9. महाभारत वन. २९-१९
41. नागानंद-५-२६ 10. महा.वन. २९- १४
आवास : ई-7/562 अरेरा कालोनी 11. महा.वन २०८-१६, १७,२२
भोपाल ४६२०१६
8.
नवम्बर 2004 जिनभाषित 13
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org