Book Title: Jinabhashita 2004 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ श्रेष्ठ मुनि ही संसार में पूजनीय होते हैं। (8) युद्धकाण्ड में युद्ध के । को उपादेय ठहराता है। (16) सोलहवें अध्याय में दैवी सम्पदा को पूर्व श्रीराम का अंगद को शांति प्रस्ताव लेकर रावण के दरबार में | प्राप्त हुए पुरुष के लक्षणों की गणना करते हुए अहिंसा को प्रथम भेजना भी उनकी शांति प्रियता, अहिंसा प्रियता का सूचक है। स्थान पर रखा गया है। 17) जो अहिंसा के प्रकृष्ट महत्व को रघुवंशियों की राजधानी के अवधपुरी नाम में भी अहिंसा की | रेखांकित करता है। गीता में शरीर तप, वाक्तप एवं मानस तप - अभिव्यंजना है। अर्थात् अवध पुरी वह पुरी है जहाँ वध अथवा इन तीन सात्विक तपों की चर्चा की गयी है। (18) वहाँ अहिंसा हिंसा सर्वथा निषिद्ध है। की परिगणना शरीरतप के अंतर्गत हुई है। (19)इस प्रकार गीता में निखिल महाभारत में क्रोध एवं अक्रोध अथवा हिंसा एवं । अहिंसा को दिव्य सम्पदा की श्रेणी में रखा गया है। अहिंसा के बीच निरंतर चल रहे द्वन्द का निरूपण है। वहाँ कहा | मनुस्मृति में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शुचिता तथा इन्द्रिय गया है, कि क्रोध में मनुष्य अवध्य पुरुषों का भी वध कर डालता निग्रह को चारों वर्गों के लिए धर्म रूप ठहराया गया है । 20 स्मृतिकार है। (१) महाभारत में दुर्योधन समस्त दुरितों के मूल क्रोध की मनु की मान्यता है, कि अहिंसा, इंद्रियों के प्रति अनासक्ति वेदानुमोदित प्रतिमूर्ति है। कौरव पक्ष के भीष्म, द्रोण, विदुर, धृतराष्ट्र जैसे आचार तथा कठिन तपश्चर्या से परम पद की प्राप्ति होती है (21) विवेकीजन दुर्योधन को क्रोध को त्यागने तथा पाण्डवों से मैत्री | उन्होंने अहिंसा को धर्माचरण तथा आत्मतत्व की साधना के लिए स्थापित करने का परामर्श देते हैं। स्वयं श्री कृष्ण का युद्ध के पूर्व | सर्व प्रमुख माना है। दुर्योधन के पास शांति प्रस्ताव लेकर जाना उनका अहिंसा का महाकाव्यों में भी अहिंसा कर्म की प्रतिष्ठा है। रघुवंश समर्थन एवं भावी हिंसा तथा भीषण रक्तपात को रोकने का एक महाकाव्य के द्वितीय सर्ग में महाराज दिलीप के गोसेवा प्रसंग में श्लाध्य प्रयास था। किन्तु भयंकर क्रोध के वशीभूत दुर्योधन को | कवि कालिदास ने संकेत दिया है कि महाराज दिलीप के वन में यह कभी रास नहीं आया। परिणामस्वरूप हुआ महाभारत युद्ध | प्रवेश करते ही वहाँ के वन्य प्राणियों के क्रूर स्वभाव में परिवर्तन एवं उसमें हुआ असंख्य निरीह प्राणियों का अकारणसंहार । महाभारत के संकेत मिलने लगते हैं। कालिदास कहते हैं कि वन में हिंसक में कहा गया है, कि विजय सदा क्षमावन् साधु पुरुष की होती | व्याघ्रादि पशुओं ने महाराज दिलीप के व्यक्तित्व के प्रभाव से है (10) महाभारत युद्ध में क्षमावीर युधिष्ठिर की विजय इसका दुर्बल मृगादि पशुओं को सताना छोड़ दिया था। ( 22 ) हिंसा कर्म तो प्रमाण है। बहुत दूर की बात थी। यहाँ दिलीप के द्वारा गोसेवा प्रसंग में कवि इसीलिए महाभारत में हिंसा कर्म की निन्दा की गयी है | ने अहिंसा वृत्ति की महत्ता को प्रतिष्ठापित किया है। एवं अहिंसा सर्वत्र प्रशंसनीय है। मानव हिंसा तो निन्दनीय कर्म है महाकवि अश्वघोष बौद्ध धर्म के अनुयायी एवं प्रखर ही, पक्षु-पक्षियों का वध तथा वृक्षों का छेदन भी हिंसा के | प्रवक्ता रहे हैं। वे बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के प्रतिपादक आचार्य हैं। अन्तर्गत आता है। (11) वन पर्व में मार्कण्डेय मुनि और धर्मव्याध | उनकी काव्यकृतियों में बौद्धमत का सहज विवेचन मिलता है। के बीच हुई वार्ता में धर्मव्याध अहिंसा की प्रशंसा करते हुए | दार्शनिक सिद्धांतों की बोझिलता से विहीन उनके काव्यों में हिंसा कहता है, कि अहिंसा और सत्य भाषण ये दो गुण समस्त प्राणियों | | के लिए कोई स्थान नहीं है। बुद्ध चरित के द्वितीय सर्ग में वर्णन के लिए अत्यंत हितकर हैं। अहिंसा तो महान् धर्म है और वह | है, कि राजा शुद्धोदन के राज्य में कोई भी हिंसा नहीं करता सत्य में प्रतिष्ठित है। (12) अनुशासन पर्व में कहा गया है. कि | था (23) स्वयं राजा शुद्धोदन अपना यज्ञकार्य हिंसा रहित विधि से देवता ऋषि और ब्राह्मण सदा अहिंसा धर्म की प्रशंसा करते हैं। सम्पादित करते थे ( 24 सौन्दरनन्द के प्रथमसर्ग में उल्लेख है, कि (13) ब्रह्मवादी पुरुषों ने मन, वचन एवं कर्म से हिंसा न करना तथा | महात्मा कपिल गौतम के हिमालय अंचल में स्थित आश्रम में आमिष त्याग इन चार उपायों से अहिंसा धर्म का पालन करने का | हिंसक पशु मृगों के साथ विहार करते थे। (25) वहाँ कोई हिंसा निर्देश दिया है। इनमें से किसी एक अंश की भी कमी रह जाये, | नहीं करता था। तृतीय सर्ग में उल्लेख है कि तथागत के प्रभाव से तो अहिंसा धर्म का पालन नहीं होता (14) किसी भी क्षुद्र से क्षुद्र | पर वधोपजीवी व्याघ्र भी सूक्ष्म जंतु की हिंसा से विरत था। (26) जंतु अथवा वनस्पति को तो दुःख पहुँचाना हिंसा है ही किसी को वहीं यह भी उल्लेख है कि मुनि के आश्रम में सभी जन परम वाणी से द:ख पहुँचाना भी हिंसा है। इनसे अपने को बचाना ही | कल्याणकारी दस सुकर्मों का आचरण करते थे। (21) इन दस अहिंसा आचरण है। इसीलिए महाभारत में अहिंसा को परमधर्म,परम | सुकर्मों में प्राणातिपातविरति अर्थात पर हिंसावर्जन सर्वप्रथम सुकर्म सत्य कहा गया है (15) माना गया है। इस विवरण से महाकवि अश्वघोष की अहिंसा के गीता में भी हिंसा कर्म की निन्दा एवं अहिंसा की प्रशंसा | प्रति आस्था अभिव्यक्त होती है। जो उनके दोनों महाकाव्यों में की गयी है। गीता के प्रथम अध्याय में ही शत्रु पक्ष की ओर से सर्वत्र प्रतिबिम्बित है। युद्ध में उपस्थित अपने बंधुबांधवों को न मारने की अर्जुन के द्वारा किरातार्जुनीय महाकाव्य के छठे सर्ग में महाकवि भारवि इच्छा प्रकट की जाना उनका हिंसा कर्म को अनुचित एवं अहिंसा | ने लिखा है, कि इन्द्रकील पर्वत पर तपस्या करते समय अर्जुन ने नवम्बर 2004 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36