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ज्योति के आवाहन और पूजन का पर्व है दीपावली
दीपावली पर्व पर विशेष आलेख
● मुनिश्री समतासागर जी
पर्व हमारी सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं। ये आते हैं और हमें एक नया संदेश देकर चले जाते हैं। पूरे वर्ष के चक्र में हमारे बीच कई-कई पर्व आते हैं। पर्व धार्मिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्त्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े रहते हैं। दीपावली का पर्व धार्मिक और ऐति हासिक तथ्यों से जुड़ा रहने के कारण आज राष्ट्रव्यापी बना हुआ है। दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति/दीप मालायें। आज के दिन दियों को जलाकर हम अपनी खुशियाँ व्यक्त करते हैं। असल में उजाला, प्रकाश जागृति का प्रतीक है, ऐसी जागृति जिसमें किसी को देखा जा सकता है, किसी को पढ़ा जा सकता है। किसी मार्ग पर आगे बढ़ा जा सकता है। अँधेरे से मनुष्य सदा से जूझता आया है। अंधकार से भीति और प्रकाश से प्रीति यह प्राणिमात्र की प्रतीति रही है। आदिकाल से ही मनुष्य की पुकार रही है कि मुझे अंधकार से निकालो और प्रकाश की ओर ले चलो । 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' उसकी अपनी अभिलाषा है, आवाज है। दीपावली के पावन पर्व पर मानव की इसी चिरकालिक अभिलाषा का उद्दीपन होता है। इस दिन लाखों दिये जलाकर उस ज्योति का आवाहन और पूजन किया जाता है जो समस्त ज्योतिर्मयी ब्रह्माण्ड की आदि स्रोत रही है। सूरज, चाँद, तारे, धरती पर इसलिये सम्मान पाते हैं कि वे इस धरती को प्रकाश प्रदान करते हैं। झिलमिलाती दीपमालायें अमावस के सघन अंधकार का तिरोहन तो करती ही हैं, मानव के मन को भी मोहकर प्रकाश से भर देती हैं। संक्षेप में यदि पूछा जाये, तो यही कहा जा सकता है कि अंधकार पर विजय पाने की प्रेरणा देता है यह पर्व ।
हमारा इतिहास कहता है कि लंकाविजय करने के बाद आज ही के दिन श्रीरामचन्द्र जी अयोध्या लौटकर आये थे, जिसकी खुशी में अयोध्यावासियों ने घर-घर में दीप जलाये थे। जैन परंपरा के अनुसार अमावस्या के प्रातः काल अंतिम तीर्थंकर महावीर को निर्वाण लाभ हुआ था तथा उसी दिन शाम को उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर को केवलज्ञान ज्योति प्राप्त हुई थी। इस कारण उस समय देव देवेन्द्रों और मनुष्यों ने दीप जलाकर अपनी खुशियाँ व्यक्त की थीं। और भी ऐसी अनेक किंवदंतियाँ, कथायें हैं, जो दीपावली पर्व के महत्त्व को दर्शाती हैं। धनतेरस से लेकर भाईदूज तक की तिथियों में जुड़े कथानक, सामाजिक, धार्मिक उपक्रम दीपावली पर्वोत्सव का भरपूर आनंद देते हैं ।
पर्व आगमन के पूर्व से ही घरों में सफाई शुरु हो जाती है। घरों की रँगाई, पुताई होती है। मिट्टी के दिये खरीदे जाते हैं। यह दिन लक्ष्मी - आगमन का दिन माना जाता है, इसलिए लोग लक्ष्मीपूजन भी करते हैं। मिठाई खाकर और फटाके फोड़कर पर्व का आनंद मनाया जाता है। लक्ष्मी आगमन के प्रलोभन में तो अधिकांश जन रात में अपनी तिजोरियाँ खोलकर रखते हैं। ऐसे समय में चोरियाँ भी बहुत हो जाती हैं। आनेवाली लक्ष्मी किसी न किसी को छोड़कर ही आएगी और लक्ष्मी जब किसी को छोड़कर अपने पास आ सकती है तो वह यहाँ से छोड़कर कहीं और भी तो जा सकती है। अब तो पर्व का प्रयोजन भी छूटता जा रहा है। आज की दीपावली सिर्फ लाइटों की जगमगाहट अंधाधुंध आतिशबाजी और जुआ खेलने तक सीमित रह गयी। जीवनप्रेरणा के दीप अब जलते कहाँ हैं ? क्या कभी विचार किया कि आतिशबाजी में कितना अपव्यय और बर्बादी है। बड़े-बड़े अग्निकांड तक आतिशबाजी में हो जाते हैं। बड़ी-बड़ी दूकानें, मालगोदामें जलकर खाक हो जाती हैं। पटाखों की तेज ध्वनि और उसकी बारूद से पर्यावरण तो प्रदूषित होता ही है, घोर जीवहिंसा भी होती है। जुआ खेलने से लाखों घर बर्बाद हो जाते हैं। पैसा आने का लोभ बना रहता है, पर आना तो दूर, दीपावली पर कई घरों में दिवाला तक निकल जाता है। वास्तव में यह पर्व उन ज्योति पुरुषों के स्मरण का पर्व है। उनकी स्मृति में दीप जलाकर प्राप्त होने वाले प्रकाश में हृदय की सफाई करने का पर्व है। अपनी धार्मिक सांस्कृतिक ज्ञान चरित्र की लक्ष्मी पूजा करने का पर्व है, अँधेरे में भटकते मानवमन में उजाला फैलाने का पर्व है। क्या कभी हमने यह विचार किया कि कहीं हमारे इन वैभवशाली महलों की रोशनी में कोई दीन कुटिया अँधेरी तो नहीं रह गयी। फटाखों की होनेवाली तेज आवाज, आतिशबाजी, में किसी अभावग्रस्त इंसान की कलह, आवाज तो नहीं दब गयी। मैं कहता हूँ कि दीपमालिका के इस पुनीत पर्व पर बाहरी मिट्टी के दियों के साथ-साथ दिल में करुणा, प्रेम के दिये भी जलें और उससे होनेवाली रोशनी में हम प्राणियों को, प्राणियों की पीड़ा को पहचानने की दृष्टि पा सकें ।
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