Book Title: Jinabhashita 2004 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ केवली भगवान मोहनीयकर्म का नाश हो जाने से, अब राग । पर्याप्तियों के योग्य वर्गणाओं का ग्रहण करना आहारक कहलाता नाममात्र के लिये भी शेष नहीं है। अत: वे न तो तीर्थंकर भगवान् | है। विग्रहगति में इन तीनों शरीर पर्याप्तियों के योग्य वर्गणाओं का को नमोस्तु ही करते हैं और न स्वयं को नमोस्तु करने वालों को | ग्रहण नहीं होता अत: तैजस व कार्मण वर्गणाओं का ग्रहण करते आशीर्वाद ही देते हैं। आशीर्वाद देना भी राग परिणति का द्योतक हुए जीव अनाहारक ही रहता है। कहा गया है। जिज्ञासा - जीर्ण, शीर्ण पुराने शास्त्रों या धार्मिक पुस्तकों तेरहवें गुणस्थान में कोई ध्यान नहीं होता । जब आयुकर्म | का विसर्जन कैसे करना चाहिए? अंतर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाता है तब तेरहवें गुणस्थान के अंत में, समाधान - शास्त्रों में इस बात का उल्लेख तो पाया जाता चार अघातिया कर्मों की स्थिति को आयुकर्म के समान करने के | है कि यदि कोई मूर्ति खण्डित हो जाये तो उसको नदी आदि की लिये तृतीय शुक्लध्यान, सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति होता है। शेष काल धारा में प्रवाहित कर देना चाहिए। परंतु जीर्ण-शीर्ण शास्त्र एवं में ध्यान रहित अवस्था रहती है। धार्मिक पुस्तकों के बारे में कोई वर्णन मेरे पढ़ने में नहीं आया। प्रश्नकर्ता - रवीन्द्र चौधरी, सागर समय-समय पर मुनिराजों एवं गणमान्य विद्वानों के प्रवचनों में यह जिज्ञासा - देवों के शरीर में कांति उद्योत नाम कर्म से | विषय जरूर सुना गया जिसके अनुसार जीर्ण-शीर्ण शास्त्र एवं होती है या आदेय नाम कर्म से? धार्मिक पुस्तकों को या तो नदी आदि के प्रवाह में विसर्जित कर समाधान - देवों के शरीर में कांति वर्ण नाम कर्म के उदय देना चाहिए अथवा अग्नि में समर्पित कर देना चाहिए। आजकल से होती है। श्री धवला पु. 6 पृष्ठ 126 पर इस प्रकार कहा है -- मंदिरों में अथवा अपने घरों में पंचकल्याणक आदि कार्यक्रमों की 'देवेसुउज्जोवस्सुदयाभावे देवाणं देह दित्ती कुदो होदि? वण्ण्णाम निमंत्रण पत्रिकाएँ, जिनमें भगवान एवं मुनिराजों के चित्र छपे होते कम्मोदयादो। हैं तथा भिन्न-भिन्न श्लोक एवं मंत्र भी लिखे होते हैं, काफी मात्रा अर्थ - प्रश्न, देवों में उद्योत प्रकृति का उदय नहीं होने पर में आने लगी हैं, इन सबको भी एकत्रित करके एक-दो माह बाद देवों के शरीर की दीप्ति कहाँ से होती है? अग्नि समर्पित करते रहना चाहिए। चूँकि ये पत्रिकाएँ लेमिनेटेड उत्तर - देवों के शरीर में दीप्ति, वर्ण नाम कर्म के उदय से होती हैं और जल में इनका गलना संभव नहीं है अतः अग्नि होती है। विसर्जन ही श्रेष्ठ है। इसके अलावा हमारे घरों में विवाह आदि के प्रश्नकर्ता - पदम कुमार जैन , ज्वेलर्स, बरहन, जिला निमंत्रण पत्रों में तीर्थंकरों का नाम अथवा मंगलम् भगवान् वीरो आगरा ..... छपा रहता है। अत: जब उनका समय निकल जाये तब इन जिज्ञासा - मेरे ताऊजी के लडके की नातिनी डेढ घंटे जीवित | भगवान के नामों को अथवा श्लोकों को उसमें से निकालकर शेष रहकर मरण को प्राप्त हुई। इसका सूतक कितना मानना चाहिए? पत्रिका को फटा देना चाहिए। महावीर जयंती आदि के अवसर पर समाधान - किशनसिंह रचित क्रियाकोष में चौपाई नं. भाई | यदि समाचार पत्रों में भगवान् महावीर का जीवन चरित्र एवं यदि 1315 -1316 में इस प्रकार कहा है - चित्र छपा हो तो उसको भी अलग निकाल लेना चाहिए। जैन बालक तीस दिवस लौं जान । 1315 पत्र-पत्रिकाओं में भी जो धार्मिक प्रसंग छपे हों उन सबको भी एक दिवस इनकौ है शोग। 1316 निकालकर एक जगह एकत्रित कर लें और जल प्रवाह में या अगि अर्थ - 30 दिन तक का बालक मरे तो इनका शोक सूतक में विसर्जित करना चाहिए। अग्नि विसर्जन करने पर जो राख बने उसे भी उचित स्थान एक दिन का होता है। श्री जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग - 4, पृष्ठ 443 पर भी एक महीने तक के बालक के मरण का सूतक एक | पर गाड़ देना चाहिए या गमले आदि में डाल देना चाहिए। यहाँ दिन कहा है। अत: आपको एक दिन का सूतक मानना चाहिए। कोई प्रश्न कर सकता है, कि इनको अग्नि विसर्जित करने पर क्या हमको पाप नहीं लगेगा। इसका समाधान यह है कि इसके प्रश्नकर्ता - सौ. ज्योतिललितशाह, मुंबई जिज्ञासा - विग्रहगति में जीव के साथ तैजस शरीर भी अलावा इन सबका और क्या उचित उपयोग किया जा सकता है। | यदि पुरानी पुस्तक आदि को रखे रहेंगे तो उनमें जीवोत्पत्ति होने रहता है , तो क्या उससमय अनाहारक होने के कारण तैजस | वर्गणाओं का ग्रहण नहीं होता होगा, क्योंकि जीव अनाहारक | पर हिंसा होगी दीमक आदि लगेगी। कुछ तो उचित उपयोग करना ही पड़ेगा। परंतु यदि द्वेष वशात् इनको अग्नि में डाला जाए रहता है। तब महान् पाप का प्रसंग आता है। परंतु हम ऐसा नहीं कर रहे हैं। समाधान - विग्रहगति में जीव के साथ तैजस एवं कार्मण हम तो केवल जीर्ण-शीर्ण या अनावश्यक पत्रिकाओं आदि का शरीर रहते हैं और इसीलिए तैजस एवं कार्मण वर्गणाओं का ग्रहण उचित उपयोग करने की बात कर रहे हैं। प्रतिसमय होता ही रहता है। लेकिन तैजस कार्मण वर्गणाओं के ग्रहण से आहारकपना नहीं बनता। आहारक की परिभाषा यह है 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, कि औदारिक, वैक्रियक एवं आहारक इन तीन शरीरों तथा छै | हरीपर्वत, आगरा (उ.प्र.) 24 नवम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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