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ग्रंथ - समीक्षा
तीर्थोदय काव्य के प्रणेता आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य जो वस्तुतः सिंह वृत्ति के धारक, तप से कर्म-मारक, अभय के धारक, स्वपर कल्याण की उत्कट भावना के धनी मुनि श्री १०८ आर्जवसागर जी महाराज हैं। जो मिथ्यात्वाचरण के नाश की प्रगाढ़ प्रेरणा प्रत्येक श्रमण, श्रोताको देना नहीं भूलते, जिससे सभी मानव-साधर्मी सम्यग्दृष्टि प्राप्त करें ऐसी उनकी मंगल कामना का फल ही तीर्थोदय काव्य है। साथ ही सोलहकारण भावना भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करें यह मंगलभावना भी निहित है।
वैराग्यरस के रसिक, प्रसाद गुण के धनी, छन्द - अलंकारों के ज्ञाता, दर्शन को काव्य में बाँधने के कौशल में प्रवीण, इन गुणों तीर्थोदय काव्य में सर्वत्र दर्शन होते हैं। सम्पूर्ण काव्य ज्ञानोदय छन्द एवं दोहा छंद में सप्त शतक के रूप में निबद्ध है।
काव्य में आंतरिक तुक साम्य-सौन्दर्य के माधुर्य का आनन्द निराला होता है। जिनवाणी मंगल के पद्य में देखिये
तीर्थोदय काव्य का सौन्दर्य
सदा भारती जगत तारती, जिनवाणी मंगलकारी । मोक्ष मार्ग में जिन सेवक को, सदा रही संकट हारी ॥ इन पंक्तियों में 'भारती' और 'तारती' शब्द आंतरिक तुक साम्य सौन्दर्य के प्रबल साक्षी हैं। कर्ण प्रियता के जनक हैं ये शब्द । ' त' त' की त्रय बार आवृत्ति में अन्त्यानुप्रास अलंकार हाथ जोड़े खड़ा है। दूसरी पंक्ति में भी अनुप्रास अलंकार छाया की तरह साथ है। उन्हें लाया नहीं गया है बुलाया नहीं गया है अनिमंत्रित आये हैं। जब कविता झरती है तो रस छंद अलंकारों की वर्षा प्रकृत रूप से होती है। यह स्थिति सम्पूर्ण काव्य में सर्वत्र विद्यमान है।
प्रायः दर्शन की भाषा सारल्य से दूर होती है परन्तु तीर्थोदय काव्य की भाषा प्रसाद गुण के कारण सरल सुबोध एवं हृदयस्पर्शी है। यहाँ भाषा को मार्दव और आर्जव गुण आशीष रूप में उपलब्ध हुए हैं। साहित्य मर्मी इसका अनुभव करेंगे। जब मुनि - कवि के हृदय में स्वपर कल्याण की गंगौत्री जन्म लेती है तो सुखकारी शुद्ध निर्मल ज्ञान गंगा का प्रवाह बहता है वही प्रवाह तीर्थोदय काव्य में है।
सम्यक्त्व की उपलब्धि में तीन मूढ़ताएँ घोर बाधक मूढ़ता, देव मूढ़ता, गुरु-मूढ़ता प्रसिद्ध हैं ।
तीर्थोदय काव्य में पूर्व वर्णित लोक मूढ़ताओं के अतिरिक्त वर्तमान में नवीन लोक मूढ़ताएँ प्रचलित हो गई हैं। उनको सम्मिलित कर प्रथम बार काव्य बद्ध कर स्पष्ट इंगित किया है। देखिये
लोक
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श्रीपाल जैन 'दिवा'
बली सभा जो फल को फोड़े, हिंसा का वो पाप भरें। मृत्यु भोज या भण्डारा से, दोनों को संतप्त करें !! बाँटें खाद्य वस्तु रात में, जो नव आंग्ल वर्ष मानें। पंचम में मिथ्या सह उपजें, जन्म दिवस सहर्ष मानें ॥ धर्मपर्व में फोड़ फटाका, जो असंख्य प्राणी मारें । रंग डालकर अनर्थ करते, बाटें पत्ती स्वीकारें ॥ फूलमाल व कदली से भी, देव सजा हिंसा करते। मिट्टी पुतले जला व जल में डुबा, मूढ़ता वे करते ॥ उपर्युक्त लोक मूढ़ताएँ वर्तमान में प्रचलन में आई हैं जो त्याज्य हैं। तपस्वी कवि का अपने प्रवचन में भी इन मूढ़ताओं को त्यागने पर जोर रहता है। जो अत्यन्त आवश्यक एवं समीचीन है।
तीर्थोदय काव्य श्रावकाचार, मूलाचार, तत्त्वार्थ सूत्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय का काव्य मय सार है। चरणानुयोग को साकार खड़ा कर दिया है। प्रथमानुयोग भी अपना योगदान देता दिख जाता है। करणानुयोग और द्रव्यानुयोग भी अपनी उपस्थिति से श्रीवृद्धि करने में पीछे नहीं है । सत्याणुव्रत में हरिश्चन्द्र का उदाहरण प्रथमानुयोग का साक्षी है अहिंसाणुव्रत में दीवान अमरचन्द प्रसिद्ध हैं, ऐसे अनेक नवीन उदाहरण देकर प्रथमानुयोग के कोष में श्री वृद्धि की है।
जैन धर्म में मठ एवं आश्रम बनाकर श्रमण नहीं रहते । दिगम्बर मुनि परिग्रह मुक्त रहते हैं ये परमेष्ठी कहलाते हैं मूर्छा मुक्त होते हैं, सम्यक् लिंग धारी आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक ये मोक्षमार्गी आर्ष परम्परा में मान्य हैं। ये ही पिच्छिका धारण करने योग्य हैं अन्य मठाधिपति आदि इसके धारण करने के अधिकारी नहीं हैं, ऐसी आगम की देशना को काव्य में कुशलता के साथ निरूपित किया है।
अष्ट मदों को नवीन ढंग से शब्दों में बाँधकर काव्यमय प्रस्तुति की है। ज्ञान मद, पूजा मद, कुल मद, जाति मद, बलमद, ऋिद्धि मद, तपमद, रूपमद सभी को छन्द में बाँधकर सोदाहरण गेय प्रस्तुति की है।
सद्विचारी ही सम्यग्दृष्टि हो सकता है, सम्यग्दर्शन के दश भेदों को भी छन्द में पिरोकर समझने में सुलभता प्रदान की है ।
विवाह विवेकी सन्तानों की उपलब्धि के लिए किया जाता है, केवल काम वासना की पूर्ति के लिए नहीं । संन्तानें मोक्षमार्ग में आगे बढ़ें। धर्म की समुन्नति में सहयोगी बनें।
देखिये इस संयम के संकल्प को काव्य में बाँधा गया है
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नवम्बर 2004 जिनभाषित 25
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