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गृही विवेकी सन्तानों की, हो उपलब्धि जो चाहे । करे अतः वह विवाह अपना, जैनी जन बढ़ना चाहे ॥ सन्तानें गर मोक्षमार्ग में, जाएँ धर्म समुन्नत हो । ना सन्तान अगर चाहे तो, ब्रह्मचर्य में उन्नत हो ॥ दिगम्बर साधु का संयम भरा सोच उनका शोध है। काम पर विवेक की वल्गा का चिंतन धन्य है । मानव मात्र के लिए सद्प्रेरक कल्याणकारक अनुशीलन है। पंचेन्द्रियों के विषयों में अनासक्ति हो, शील हो, ब्रह्मचर्य हो, शील के बाधक भावों की, स्थितियों की, निमित्तों की खुलकर कवि ने काव्यमय प्रस्तुति की है जो सभी को शीलवान बनने की प्रेरणा देने में सक्षम है।
भक्ष्य - अभक्ष्य, सेव्य- अनुपसेव्य सभी वस्तुओं पर कलम चलाकर जैन आहार की सुन्दर काव्यमय व्याख्या सूक्ष्म चिन्तन व आचरण करने की प्रेरणा देती है।
जल गालन की सूक्ष्मता को दार्शनिक कवि की कलम ने सरलभाषा में बाँधकर पाठक के समक्ष प्रकृत रूप से रख दिया है। सूक्ष्म अहिंसा के पालन में जल छानना और जीवानी कुए में डालना मृदुता के साथ जीव बचाना यह विधि काव्य में देखिये
जीवानी को नीर के सतह पर धीरे छोड़ें, इसका विवेक रहे नहीं तो जीव घात हो जाएगा। करुणा की किरणें कवि के हृदय सूर्य से फूट रही हैं। जीवों को बचाने की चिंता हमें चिंतन करने को विवश करने के लिए अत्यन्त सक्षम है
पंचाणुव्रत की फसल की रक्षा हेतु गुणव्रत शिक्षा व्रतादि की बाढ़ के रूप में सुन्दर विवेचना की है। व्रतों के अतिचारों (दोषों) की काव्यमय अभिव्यक्ति निरतिचार रूप से व्रत पालन की सशक्त प्रेरणा देती है।
जैन दर्शन में जीने की कला के साथ मरने की कला का महान महत्त्व है। मौत को हँसते-हँसते समता भाव से गले लगाना मृत्यु महोत्सव कहलाता है । समाधि मरण साधक का
किसी पात्र व रस्सी द्वारा, जल निकाल के छानें वे । मोटा कपड़ा दुहरा होता, धीरे-धीरे छानें वे ॥ बिना छना जल गिरे न नीचे, योग्य पात्र हो ध्यान रहे । हैजीवानी को नीर सतह पर, धीरे छोड़ें ज्ञान रहे ॥
अंतिम पड़ाव होता है। जिसके माध्यम से सुगति या सर्वोतम गति को प्राप्त किया जाता है । मृत्यु महोत्सव की काव्य मय प्रस्तुति काव्य की अनुपम विशेषता है। इसमें सेवा का महात्म्य एवं फल अकल्पनीय है। कहीं निश्चयनय और व्यवहारनय का सरल स्वरूप साकार हुआ है तो कहीं समवसरण के सौन्दर्य का विशद चित्रण भी विद्यमान है।
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सम्पूर्ण तीर्थोदय काव्य में प्रमुख रूप से सम्यग्दर्शन, सोलह कारण भावनाएँ एवं व्रत की विधि, विनय, पंचाणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, ग्यारह प्रतिमाएँ, समाधिमरण, समवसरण वर्णन, मुनियों के षड् आवश्यकादि का सुन्दर सरल काव्यमय वर्णन है। जो सहज बोधगम्य है। प्रेरक देशना पूर्ण 'तीर्थोदय काव्य' एक बैठक में पठनीय है।
26 नवम्बर 2004 जिनभाषित
तीर्थोदय काव्य सम्यग्दर्शन का काव्य है, षोडशकारण भावना का काव्य है। सद्दर्शन की प्राप्ति में मार्ग दर्शन का काव्य है। श्रावकाचार का दिग्दर्शक काव्य है, मूलाचार का दर्शक काव्य है | शुद्ध आचरण के अतिचारों पर नियंत्रण का काव्य है। व्रतों के अतिक्रम, व्यतिक्रम, अनाचारों से रक्षा का काव्य है । संयम के मार्ग का प्रकाशस्तंभी काव्य है ।
इसकी जितनी प्रशंसा-अनुशंसा की जाय उतनी कम
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आचार्य श्री विद्यासागर जी के सुभाषित
'आत्मा में जो मूर्तपना आया है वह पुनः अमूर्तता में ढल सकता है, क्योंकि वह संयोगजन्य है, स्वभाव जन्य नहीं । इस प्रकारएक अलग ही तरह का मूर्तपना इस जीव में तैयार हुआहै जिसे न जड़ का कह सकते हैं न चेतन का । ग्रन्थों में इस चिदाभासी कहा गया I
जिनवाणी का सार सरलता, संयम व्रत निर्दोष करो । निज को जानो मानो अचरो, निज पर का उद्धार करो ॥
तीर्थोदय काव्य का यही संदेश है।
'दिवा' तीर्थोदय काव्य के सर्जक मुनिवर श्री आर्जवसागर जी महाराज इस अमूल्य कृति को रचकर धन्यता को प्राप्त हुए हैं उन्हें अन्तरंग से नमोस्तु । हम सब इस काव्य का स्वाध्याय करें और अपने को धन्य करें ।
इस मंगल भावना के साथ- 'तीर्थोदय काव्य' आपके हाथ हमेशा रहे ।
पाप चोर है और पुण्य पुलिस । शुद्ध भाव से ठ साहूकार के समान है। साहूकारों को खतरा चोरों से रहता है न कि पुलिस से, और चोरों को पुलिस से हमेशा ईष्या रहती है।
पूजन दान स्वाध्याय आदि श्रावक के कर्त्तव्य है। इन कर्त्तव्यों के प्रति हेय बुद्धि कभी नहीं लाना प्रति जरूर लाना ।
शाकाहार सदन एल-75, केशर कुंज हर्षवर्द्धन नगर, भोपाल-3 दूरभाष : 2571119
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हाँ! कर्तृत्व के
'सागर बूँद समाय'
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