Book Title: Jinabhashita 2002 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ शास्त्राराधना पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी पिछले प्रवचनों में देव और गुरुपर प्रकाश डाल चुका हूँ। । प्रवृत्यात्मक नहीं । निवृत्यात्मक भाव ही निर्जरा का कारण होता है आज शास्त्र पर कुछ कहना चाहता हूँ। शास्त्र, सम्यग्ज्ञान का प्रवृत्तात्मक अंश आस्रव का साधन होता है। शास्त्र, हमें सचेत साधन है। जिस प्रकार मार्ग में चलने वाले मानव को पाथेय | करते रहते हैं कि बाह्यपदार्थों का ग्रहण न करो। आवश्यक होता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में चलने वाले के लिये श्रुतको सूत्र कहते हैं कि और सूत्र का एक अर्थ सृत भी शास्त्र ज्ञान एक प्रकार का पाथेय है। इस पाथेय के रहते हुये मोक्ष | होता है। जिस तरह सूतसहित सुई गुमती नहीं है, इसी तरह सूत्रमार्ग के पथिक-को कोई कष्ट नहीं होता। शास्त्रज्ञानसहित जीव गुमता नहीं। अन्यथा चौरासी लाख योनियों शास्त्र की उद्भूति अपने आप नहीं होती किंतु केवलज्ञानी | में पता नहीं चलता है कि कहाँ पड़ा हुआ है यह जीव । जिसने श्रुत से होती है। जो केवलज्ञानी होता है वह वीतराग अवश्य होता है को आत्मसात नहीं किया वह ग्यारह अंग और नौ पूर्व का पाठी क्योंकि वीतराग हुये बिना केवल-ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। होकर भी अनंत काल तक संसार में भटकता रहता है और जो श्रुत केवल-ज्ञानी ने अपने ज्ञानदर्पण में सब कुछ देखकर हमें संबोधित को आत्मसात् कर लेता है वह अंतमूर्खत में भी सर्वज्ञ बनकर किया है। भगवत् पद की प्राप्ति केवल-ज्ञान से ही होती है, श्रुत- | संसार भ्रमण से सदा के लिये छूट जाता है। जिस प्रकार रस्सी के ज्ञान से नहीं। श्रुतज्ञान बारहवें गुणस्थान के आगे नहीं जाता है, | बिना कुएँ का पानी प्राप्त नहीं हो सकता है, उसी प्रकार जिनागम फिर भी उसमें इतनी क्षमता है कि वह आपको पृथक्त्व वितर्क के अभ्यास के बिना तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। वीचार और एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान की प्राप्ति में सहायक देव और गुरु से सम्बन्ध छूट सकता है परन्तु शास्त्र से होता है। उत्कृष्टता की अपेक्षा उपर्युक्त दोनों शुक्लध्यान पूर्वविद् सम्बन्ध नहीं छूटता। शुक्लध्यान की प्राप्ति में देव और गुरु का के ही होते हैं। कहा है- “शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः।" आलंबन नहीं रहता, परन्तु श्रुत या शास्त्र का आलंबन अनिवार्य भगवान् महावीर को केवल ज्ञान हो गया परन्तु 66 दिन रूप से लेना पड़ता है। स्वाध्याय को तप कहा हैं। और तप क्या तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी। समवशरण रचा गया। उसमें विराजमान है? जीवकी अप्रमत्त दशा ही तप है। यह अप्रमत्त दशा संयत के ही महावीर को देखकर लोगों के नेत्र तो तृप्त हो गये। परन्तु श्रोत्र संभव है, असंयत के नहीं। तप कर्म और तप आराधना भी संयत अतृप्त बने रहे। इंद्र के मध्यम से गौतम समवशरण में पहुँचे। के होती है, असंयत के नहीं। उनके पहुँचने पर दिव्यध्वनि खिरी और उसे उन्होंने गणधर बनकर जिस प्रकार मृदंग बजाने वाला व्यक्ति अपने आपको उसके पंथरूप में, शास्त्र रूप में परिवर्तित कर हम लोगों को सुनाया। इस | लय के साथ तन्मय कर रहा है, उसी प्रकार भव्यप्राणी को श्रुत तरह शास्त्र की समुद्भूति भगवान् महावीर की दिव्य ध्वनि से प्रतिपादित ज्ञान से अपने आपको तन्मय कर लेना चाहिये। इस हुयी है। तन्मयी भाव के बिना श्रुताध्ययन की सार्थकता नहीं है। मृदंग, जिनवचन अर्थात् जिन शास्त्र एक प्रकार की औषधि है बजाने वाले के हाथ का स्पर्श पाये बिना नहीं बजता, पर मृदंग और ऐसी औषधि है जो विषय सुख का विरेचन करने वाली है स्वयं बजने की इच्छा नहीं रखता। इसी प्रकार नि:स्पृह कवली तथा जन्ममरण के रोग दूर करने वाली है। आचार्य में एक अवपीडक भगवान् दिव्यध्वनि के द्वारा भव्यजीवों को कल्याण का मार्ग दिखाते नामक का गुण होता है उस गुण के कारण वे शिष्य के हृदय में हैं, पर उससे उनका कोई प्रयोजन नहीं रहता। कुंदकुंद, समंतभद्र छिपे हुये विकार को बाहर निकालकर दूर कर देते हैं। शास्त्र भी आदि आचार्यों ने जो ग्रंथ रचना की है वह भी ख्याति लाभ आदि आचार्यों के वचन है। उनमें भी अवपीडक गुण विद्यमान है अत: की आकांक्षा से रहित होकर की है। वीतराग जिनेंद्र की वाणी को वे शिष्य के अन्तरस्थल में छिपे हुये रागादि विकारी भावों को दूर वीतराग ऋषियों ने अब तक सुरक्षित और प्रसारित किया है। इसी करते हैं। से हम लोगों का कल्याण हो सकता है। णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं- आदि मंत्र का लय के साथ संसारी प्राणी के अंतस्तल में चिरसंचित रागादि विकारी उच्चारण करना पाठ कहलाता है। पुनः अरहंतादि परमेष्ठियों का भावरूप मल सड़कर अस्वस्थता उत्पन्न कर रहा है। इसे विरेचन स्मरण करना जाप कहलाता है। अंरहत आदि परमेष्ठियों का क्या करने वाला कौन है? जिनवाणी है। वही बार-बार कथन करती है स्वरूप है? अरहंत आदि पद कैसे प्राप्त किया जा सकता है? यह कि हे प्राणी! तू रागद्वेष के कारण ही आज तक संसार में भटक जानना ज्ञान है। और चित्त का उन्हीं के साथ एकीभाव हो जाना हा है तथा उन्हीं रागद्वेष के कारण तूने आज तक सरागी देव की ध्यान है। यह सब विशेषतायें हमें शास्त्र से ही ज्ञात होती हैं। शास्त्र शरण पकड़ी है। अब अपने वीतराग स्वभाव का आलंबन ले और पढ़ने का नाम आचार्यों ने स्वाध्याय रंक्खा है। स्वाध्याय का शब्दार्थ इन औपाधिक विकारी भावों को दूर करने का प्रयत्न कर। होता है स्व अथवा अपने आपको प्राप्त करना। जिसने अनेक स्वाध्याय परम तप है। अंतरंग तपों में इसे सम्मलित | शास्त्रों को पढ़कर भी स्व को प्राप्त नहीं किया उसका शास्त्र पढ़ना किया गया है। यह कर्म निर्जरा का प्रमुख कारण है। कुंदकुंद | सार्थक नहीं है। कहने का तात्पर्य यही है कि मोक्षमार्ग की स्वामी ने इसे षडावश्यकों में शामिल नहीं किया है। किंतु उसके | साधना में देव और गुरु के समान शास्त्र का परिज्ञान भी महत्त्वपूर्ण बदले अभ्यंतर तपों में शामिल किया है। तप निवृत्यात्मक होता है | स्थान रखता है। 4 दिसम्बर 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36