Book Title: Jinabhashita 2002 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 3
________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य सितम्बर माह का जिनभाषित का अंक पढ़ा। आपकी । के माध्यम से हर महीने अवगत होते रहते हैं। यह पत्रिका अभी पत्रिका नियमित समय पर प्राप्त हो रही है । सम्पादकीय में 'उच्चतम | तक तो अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करती रही है, आगे भी इसका न्यायालय का सराहनीय निर्णय' पढकर बहत अच्छा लगा। मैं | भविष्य ऐसा ही रहे, यह हम सभी की प्रार्थना उपर वाले से है। छत्तीसगढ़ प्रांत के आदिवासी अंचल सरगुजा में रहती हूँ यहाँ आप सबों की मेहनत से पत्रिका और भी निखरेगी तथा जैन जैनों की संख्या बहुत कम है फिर भी सामाजिक, साहित्यिक | विचारकों को दिशा निर्देश देगी, मेरी यह पूर्ण धारणा और सदिच्छा संस्थाओं में एवं कार्यक्रमों में जाने के मौके मिलते रहते हैं। वहाँ | डॉ. विनोद कुमार तिवारी, कभी-कभी धर्म के विषय में चर्चा छिड़ जाती है. तो लोग जैनधर्म रीडर व अध्यक्ष, इतिहास विभाग, के विषय में अज्ञानतापूर्ण बातें करने लगते हैं। यदि हमारे जैन बंधु यू.आर.कॉलेज, रोसड़ा (बिहार) ऐसा प्रयास करें कि हर कक्षा की हिन्दी पाठ्यपुस्तक में जैन "जिनभाषित"मासिक पत्रिका का अक्टूबर-नवम्बर 2002 संस्कृति का एक पाठ व तीर्थंकरों से संबंधित जानकारी दे सकें तो | का संयुक्तांक मिला। अनुगृहीत हूँ। पत्रिका का मुख-पृष्ठ सहज तरीके से सही जानकारी लोगों तक प्रेषित हो सकेगी। (आवरण)व अन्तिम पृष्ठ दोनों ही सामयिक और सुदर्शनीय हैं। आप अपनी पत्रिका में बहुत ही अच्छे लेखों का संकलन प्रात: वन्द्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की “गुरु महिमा" देशना कर पाठकों तक पहुँचाते हैं। में मानव-जीवन में सदगुरु का महत्त्व अपरिहार्य है। मुनिश्री पंडित मूलचंद लुहाड़िया का लेख "और मौत हार गई" | विशुद्धसागरजी का 'श्रमण संस्कृति में सल्लेखना', पं. जुगल हृदय को छू लेने वाली सत्य घटना है जो आत्मबल के साथ-साथ किशोर जी मुख्तार का 'उपवास', सुश्री सुशीला पाटनी का 'जैसा प्रेरणा भी देती है। हर स्तर व हर पीढ़ी के लोगों को आपकी | करोगे वैसा भरोगे' लेख पठनीय हैं। परन्तु भर्त्सना-प्रस्ताव, भगवान पत्रिका रुचिकर लगती है। आपको बहुत-बहुत बधाई। महावीर की जन्मभूमि विषयक विवादास्पद लेखद्वय जिनभापित इन पंक्तियों के साथ पत्रिका के योग्य नहीं हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया जिनभापित जिनभाषित के कुछ लेख चिंतन, को "जिनभाषित" ही रहने दें। इसे विवादग्रस्त पत्रिका न बनायें। करने करते विवश, ऐसे विवादों के लिये अन्य पत्रिकायें ही बहुत हैं। इसमें तो कुछ देने आत्मबल की प्रेरणा "जिनभाषित" लेख ही प्रकाशित हों। खोजने से मिलती नहीं, डॉ. प्रेमचन्द्र रावका वह जानकारी देती है पत्रिका। पूर्व प्रोफेसर व प्राचार्य, राजकीय संस्कृत कॉलेज, जयपुर-बीकानेर सम्पादकीय हर बार नये रूप में, 'जिनभाषित' सितम्बर 2002 अंक मिला, अगस्त अंक पाठकों की पढ़ने की बढ़ा देती है लालसा। की प्रतीक्षा में हूँ। सम्पादकीय-उच्चतम न्यायालय का सराहनीय श्रीमती उषा फुसकेले 'किरण' सम्भागीय अध्यक्ष निर्णय दिशा बोधक है। धार्मिक शिक्षा सरकारी सहायता प्राप्त अ.भा. दिग. जैन महिला परिषद् स्कूलों और अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं में भी छत्तीसगढ़, अम्बिकापुर (सरगुजा) लागू की जा सकती है इस निर्देश/निर्णय के अनुसार समाज को "जिनभाषित" का सितम्बर 2002 अंक आज ही प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा देना प्रारम्भ करना चाहिये। जैन हुआ और इसे एक ही बैठक में पढ़कर अभी-अभी समाप्त किया है। पिछले अंकों की तरह ही यह अंक अपनी मनमोहक साज धर्म भाव एवं स्वाध्याय (शिक्षा) प्रधान है। पूज्य वर्णीजी ने इस सज्जा के साथ कई विशिष्ट लेख-कविताएँ लिए हुए है। आपने उद्देश्य हेतु जीवन समर्पित कर दिया, इससे सभी परिचित है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय को सराह कर वैसे लोगों का उत्साह वर्तमान में इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। पाठशालाएँ बंद बढ़ाया है जो स्कूली पुस्तकों में इतिहास की घटनाओं को सही है। शिक्षण संस्थाओं की स्थिति दयनीय है। जड़निर्माण में समाज रूप में पाना चाहते हैं। डॉ. वन्दना जैन की कविता तो दो बार का धन लग रहा है, जो अति चिंता का विषय है। सम्पादकीय में दुहरा कर ही मुझे याद हो गई। उन्हें विशेष धन्यवाद। आचार्यश्री आपने इसे रेखांकित किया है। विश्वास है कि समाज के विद्यासागर जी महाराज के विचारों को हर जैन-अजैन को स्वीकार श्रमण/श्रावक इस ओर ध्यान देंगे, अपने साधन धार्मिक शिक्षा के करना चाहिए। मुनि श्री समतासागर जी ने पर्युषण पर नई दृष्टि | प्रचार-प्रसार में लगा देंगे, सदभावना पूर्वक। डाली है, जबकि कुमारी समता जैन ने युवाओं के कर्त्तव्यों को पू. आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज का आलेख हृदय समझाया है। जैन जगत के समाचारों से भी हम सभी इस पत्रिका | स्पर्शी है। पहले उत्कृष्ट श्रावक के व्रत अंगीकार करो' दिशाबोधक -दिसम्बर 2002 जिनभाषित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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