Book Title: Jinabhashita 2002 10 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ सम्पादकीय महासभा का प्रस्ताव दुर्भावनापूर्ण दि. 18 अगस्त, 2002 को उदयपुर (राजस्थान) में भारतवर्षीय दि. जैन ( धर्मसंरक्षिणी ) महासभा का अधिवेशन सम्पन्न हुआ, जिसमें कुछ प्रस्ताव पारित किये गये (देखिए 'जैनगजट' 5 सितम्बर, 2002 ) । प्रस्ताव क्र. 2 में कहा गया है कि बिजौलिया (राजस्थान )के नवनिर्मित मन्दिर में आचार्य श्री वर्धमानसागर जी के तत्त्वावधान में प्रतिष्ठित जिनबिम्ब और शासनदेवी-देवताओं की मूर्तियों को कुछ लोगों ने उनके स्थान से हटाकर अन्यत्र स्थापित कर दिया है, जो उनका निरादर है । प्रस्ताव में इस कार्य को द्वेषपूर्ण, समाज में उत्तेजना पैदा करने वाला और विघटनकारी कहा गया है तथा उन मूर्तियों को यथास्थान स्थापित करने की माँग की गई है। इस प्रस्ताव में जिनबिम्बों को अपने स्थान से हटाने का जो आरोप लगाया गया है, वह सर्वथा मिथ्या है। कोई भी जिनबिम्ब अपने प्रतिष्ठित स्थान से नहीं हटाया गया। शासन देवी-देवताओं (पद्मावती - क्षेत्रपाल ) की मूर्तियाँ सन् 1998 सम्पन्न प्रतिष्ठा के समय समाज के घोर विरोध के बावजूद हठात् स्थापित की गई थीं। वास्तुशास्त्र के अनुसार इन मूर्तियों का स्थान उचित नहीं था । अतः इस वर्ष (सन् 2002 में ) बिजौलिया में मुनिसंघ के चातुर्मास हेतु आने के बहुत पहले ही समाज के आग्रह पर श्री पार्श्वनाथ दि. जैन अतिशय क्षेत्र कमेटी बिजौलिया ने पद्मावती और क्षेत्रपाल की उक्त मूर्तियाँ उस स्थान से हटाकर उचित स्थान पर स्थापित कर दीं, जिससे वास्तुशास्त्रीय दोष दूर हो गया । यह कार्य सराहना के योग्य है, किन्तु महासभा ने एक सराहनीय कार्य की भर्त्सना की है। उसका यह कृत्य द्वेष एवं दुर्भावना से प्रेरित है। महासभा की यह द्वेषपूर्ण प्रवृत्ति, न केवल स्वयं के अस्तित्व के लिए घातक है, अपितु सम्पूर्ण जैन समाज एवं जिनतीर्थ को विनाश के कगार पर ले जाने वाली है । अतः उससे विनम्र अनुरोध हे कि वह अपनी प्रवृत्ति को बदलकर सृजनात्मक बनाने का प्रयास करे, जिससे जैन समाज और जिनतीर्थ उन्नति और समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर हों । बिजौलिया तीर्थक्षेत्र कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित कर महासभा के उक्त प्रस्ताव की भर्त्सना की है, जो आगे उद्धृत किया जा रहा है । रतनचन्द्र जैन बिजौलिया कमेटी का भर्त्सना प्रस्ताव । शान्तिभंग करने वाली संस्था बन चुकी है। यह सम्पूर्ण तीर्थक्षेत्र कमेटी संतों के अशीर्वाद, विद्वानों के परामर्श एवं सम्पूर्ण धर्ममय विवेक से इस तीर्थक्षेत्र का रख-रखाव करती है। इसी समिति को जिनबिम्बों का निरादर करने वाली बताना तथा शासन देवीदेवताओं को उनके यथायोग्य स्थान पर विराजमान करने को आगम विरुद्ध, उत्तेजना एवं द्वेषपूर्ण बताना महासभा का निन्दनीय एवं समाज को भ्रमित करने वाला दुष्कृत्य है, जिसकी जितनी भी निन्दा एवं भर्त्सना की जाये उतनी ही कम है। महासभा और उसके तथाकथित नेता अध्यक्ष श्री निर्मलकुमार सेठी भले ही तीर्थसंरक्षण महासभा के नाम पर अनर्गल प्रलाप करते रहें; किन्तु उन्हें वास्तविक जीर्ण-शीर्ण, नष्ट होते तीर्थक्षेत्रों के विकास में नाम मात्र की भी रुचि नहीं है। उन्होंने इस ऐतिहासिक तीर्थक्षेत्र बिजौलिया के विकास में कभी रुचि नहीं ली तथा न ही कभी किसी प्रकार का सहयोग किया, बल्कि मुख्य पदाधिकारी द्वारा पंचकल्याण प्रतिष्ठा महोत्सव में मुख्य कलश लेकर उसका चेक पेमेन्ट रुकवा दिया, जो आज तक बकाया है। वे तो महासभा को वहीं पर ले जाते हैं जहाँ उनके नेतृत्व के अहम् की पूर्ति होती रहती है। पूर्व में भी श्री निर्मलकुमार सेठी ने इस • अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 3 बिजौलिया, दि. 14 सितम्बर, 2002 श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कमेटी बिजौलिया जिला - भीलवाड़ा (राज.) । अतिशय तीर्थक्षेत्र के सम्बन्ध में श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (धर्म संरक्षणी) महासभा द्वारा दिनांक 18.8.2002 को उदयपुर में आयोजित साधारण सभा द्वारा पारित तथा दिनांक 6.9.2002 के जैन गजट वर्ष 106 अंक चालीस पृष्ठ 5 पर प्रकाशित धार्मिक उन्माद एवं समाज को भ्रमित करने वाले इस प्रस्ताव की हमारी तीर्थक्षेत्र कमेटी सर्व सम्मति से पुरजोर भर्त्सना एवं कड़ी निन्दा करती है। प्रस्ताव की द्वेषपूर्ण भाषा एवं उसमें अन्तर्निहित स्वार्थों पर प्रबंध समिति के सदस्यों ने रोष प्रकट किया। सदस्यों ने कहा कि हम सब जैन धर्मानुयायी हैं एवं अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ सांस्कृतिक धरोहर इस प्राचीन तीर्थ का विकास कर रहे हैं । यहाँ पर उन व्यक्तियों का, समितियों का, संस्थाओं का स्वागत है जो तीर्थक्षेत्र के विकास में रुचि रखते हैं, लेकिन महासभा कुछ वर्षों से अपने कार्यों की प्रशंसा तथा दूसरों द्वारा किये गये अच्छे कार्यों का छिद्रान्वेषण (निन्दा) करती है । अतः तीर्थ क्षेत्र कमेटी की दृष्टि में यह पूरी तरह अवांछित, असामाजिक एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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