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चातुर्मास में बरसी चौदह रत्न मणियाँ
डॉ. श्रीमती विमला जैन, फिरोजाबाद
श्रमण-शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्योत्तम । है वह वैसा पाता है। कर्म पुरुषार्थ की प्रेरक शक्ति आत्मस्वातंत्र्य मुनि श्री समता सागर जी का पावन वर्षा योग फिरोजाबाद में हो | में है। रहा है। मुनि श्री वर्तमान के क्रान्तिदूत तथा आदर्श मुनिचर्या के जीवनोत्थान के लिये 'आहार शुद्धि' बहुत ही महत्त्वपूर्ण धनी हैं। उनका चिन्तन, मनन तथा प्रवचन एकरूपता लिये होता | है। अन्धकार को खाने वाला प्रकाशपुंज दीपक, काजल ही देता है। वे श्रुतमर्मज्ञ तथा निश्चय-व्यवहार में ताल-मेल बैठाने में | है, इसी प्रकार सात्त्विक, राजसी, तापसी, भोजन का प्रभाव मानव सिद्धहस्त हैं। सैद्धान्तिक गूढ़ता को वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ढालकर | की वृत्ति और स्वभाव को प्रभावित करता है। 'विचार शुद्धि' से मनोवैज्ञानिक स्वरूप दे देते हैं । इस प्रकार शिवम-सत्यम्-सुन्दरम् | तात्पर्य है परिणामों/भावों की विशुद्धता से। भाव के अनुसार ही से आभान्वित उनके प्रवचन मिथ्यात्व और अज्ञानान्धकार को नष्ट | वाणी और क्रिया होती है अत: विशुद्धि के लिये सर्वप्रथम मनकर देते हैं। सामाजिक कुरीतियों पर प्रखर वाणी के द्वारा सीधा | मस्तिष्क और विचार पवित्र हों, आगे सब कुछ निश्चय ही विशुद्ध प्रहार करते हैं। वर्तमान में वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक | हो जायेगा। 'संस्कार शुद्धि' में सु-संस्कारों का महत्त्व बताया है, समस्याओं के समाधान में भगवान महावीर के सिद्धान्त रामबाण | मानव पतित या पावन संस्कार से बनता है। व्यापार शुद्धि' सात्त्विक हैं अतः 'जीयो और जीने दो' के लिये शान्ति प्रदायक सुखद गुरु | जीविकार्जन से तात्पर्य है, मनुष्य जैसा व्यापार करता है उसके मंत्र के रूप में श्रावण माह में प्रवचन शृंखला चली। मुनिश्री ने 14 | विचार भी उसी के अनुसार बनते हैं। क्रूर कर्म करने वाला उदार सिद्धान्त 14 रत्न 'चिन्तामणि' के रूप में दिये जिनसे मानव का | नहीं हो सकता। धर्म और कुल की मर्यादा के अनुकूल उत्तम जीवन सुखशान्तिमयी होने के साथ-साथ आत्मोत्थान के परम | जीविका के लिये उद्यम श्रेष्ठ है। लक्ष्य को भी पा सकता है।
आत्मोत्थान के लिये 'स्वाध्याय' स्व-आत्म-ध्यान तथा वे चौदह सिद्धान्त हैं- (1) अहिंसा, (2) अनेकान्त, | सत्साहित्य व आगम ग्रन्थों का पठन-पाठन आवश्यक है। 'संयम' (3) अपरिग्रह, (4) आत्म स्वातंत्र्य या कर्म सिद्धान्त, (5) | मानव जीवन की विशेषता है। इन्द्रिय व मन को संयमित रखकर आहारशुद्धि, (6) विचारशुद्धि, (7) संस्कारशुद्धि, (8) व्यापार ही मानव धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ कर सकता है। प्राणी संयम के शुद्धि, (9) स्वाध्याय, (10) संयम, (11) सेवा, (12) वात्सल्य, रूप में दया, करुणा और इन्द्रिय संयम के द्वारा ही अहिंसा पल (13) भक्ति, (14) ध्यान। ये रत्न मणियाँ जब भी जीवन को | सकती है। 'सेवा' मानवीयता का गुण है, सेवा वैयावृत्ति के द्वारा अलंकृत कर देंगी, वह देदीप्यमान मानवोत्तर की श्रेणी में आने | स्व-पर का उपकार तो होता ही है, महान पुण्यार्जन भी होता है लगेगा। क्रमश: चलने वाली प्रवचन श्रृंखला में अहिंसा' को जैन | 'वात्सल्य' शुद्ध प्रेम को कहा जा सकता है, नि:स्वार्थ भाव से धर्म का प्राण और मानवता की शान माना है। कर्म और व्यवहार | प्राणी मात्र के प्रति स्नेह रखना, उसके कष्ट निवारण की हार्दिक में ही नहीं, वाणी और चिन्तन में भी अहिंसा आवश्यक है। प्राणी | उत्कंठा होना। जिस प्रकार माँ अपनी सन्तान के प्रति वात्सल्य मात्र के प्रति करुणा भाव रखना, उन्हें संरक्षण देना, निर्भय, सुखद, रखती है, शिशु के क्षुधातुर होते ही उरोजों से दूध की धारा बहने शान्तिमय, जीवनयापन में सहयोग करना, मन-वचन-काय से लगती है, इसी प्रकार प्राणीमात्र के प्रति उदार वृत्ति मानव को कृत-कारित-अनुमोदना के साथ अहिंसा व्रत की साधना मानवता महान बना देती है। 'भक्ति' भगवान के प्रति भक्त की सच्ची, का प्रथम कर्तव्य है। अनेकान्त के सिद्धान्त के द्वारा विश्व-राष्ट्र श्रद्धा, उदात्त समर्पण, अभीप्सा उसे भगवान बना देती है। 'ध्यान' समाज तथा वैयक्तिक विषमताओं का समाधान हो सकता है।। | के द्वारा ध्याता ध्येय को पा लेता है। ध्यान व्यक्ति को साधनापथ में अनेकान्त 'ही' की हठग्राहिता को छोड़ 'भी' की मार्दवता का अन्तर्मुखी बनाता है। पक्षधर है। भगवान महावीर ने अनेकान्त और स्याद्वाद का सूत्र । इस प्रकार चातुर्मास के प्रथम माह की प्रवचन श्रृंखला में देकर समन्वय और समाजवाद का सर्वजन हिताय और सर्वजन | मुनि श्री ने अपने सरल, सरस, सुबोध उद्बोधन से मनौवैज्ञानिक सुखाय का मंगल भाव भरा है। 'अपरिग्रहवाद' एक अद्वितीय | प्रभाव डालते हुए, धर्म प्रेमी श्रोताओं को आन्तरिक शुद्धीकरण के सिद्धान्त है। यद्यपि अनादिकालीन संज्ञा में परिग्रह स्वाभाविक लिये तैयार किया है। उनका दिशा बोध रत्नत्रय के बीजंकुरण का प्रवृत्ति है परन्तु जब तक मनुष्य परिग्रह के जंजाल में फंसा रहता | स्वरूप ले चुका है। भगवान महावीर के सिद्धान्तों का सर्वांगीण है उसे निराकुलता की प्राप्ति नहीं हो सकती। परिग्रह के प्रति | तथा सर्वपक्षीय निरूपण, वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण, चतुर्योग को अन्तर-बाहर ही नि:स्पृहता की स्वात्मसुखानुभूति का मर्म है। विवेचित करता है। इस आदर्शभूत विश्व-विश्रुत सिद्धान्त धारा के 'आत्म स्वातंत्र्य' में कर्म सिद्धान्त अन्तर्निहित है, जो जैसा करता | प्रति श्रोतागण नतशीष तथा कृतार्थ हैं।
- अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 11
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