________________
ग्रन्थ समीक्षा
'जैनधर्म और दर्शन'
अणु में विराट की खोज
पं. निहालचंद जैन, बीना
जबलपुर प्रवास (27 जन. 97) में पूज्य आचार्य विद्यासागर । 81-7483-007-3) में स्थापित कर दिया है। जी के परम शिष्य मुनिद्वय श्री प्रमाणसागर जी व श्री समतासागर (4) जैनदर्शन/धर्म की वैज्ञानिकता को कृतिकार ने मुखर जी के दर्शन लाभ का पाँचवाँ सुअवसर मिला, जिनकी पारदर्शी किया है। विशेषत: अजीव द्रव्य के 'पुद्गल' के वर्णन में इसे आँखों में 'विद्वानों' के प्रति वात्सल्य भाव झलकते हुए देखा।। वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लिखा। शुभाशीष के रूप में मुनि श्री प्रमाण सागर जी ने "जैनधर्म और 4 (5) विविध दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त दर्शन" तथा मुनि श्री समतासागर जी ने "सागर बूंद समाय"- | और आत्म तत्त्व को बहुत मौलिकता से व्याख्यापित किया है। (आचार्य विद्यासागर के अनमोल सूक्त-वचनों का संग्रह) तथा | (6) जैसे कानून विशेषज्ञ उच्च न्यायालयों/सुप्रीम कोर्ट 'भक्तामर स्तोत्र का दोहानुवाद' (दोनों पुस्तकों के कृतिकार मुनि | की नजीरें प्रस्तुत कर अपने कथनों को प्रामाणिक सिद्ध करता है समता सागर जी) भेंट स्वरूप दी। समीक्षा लिखने के लिए प्रेरणा | उसी प्रकार प्रतिपाद्य विषय वस्तु को न केवल 98 जैन ग्रन्थों के और अशीर्वाद भी दिया।
सैकड़ों उद्धरणों से व्याख्यापित किया वरन जैन/जैनेतर विद्वानों के विवेच्य कृति "जैनधर्म और दर्शन" (मुनि श्री प्रमाण 35 साहित्यिक ग्रन्थों, छह अंग्रेजी पुस्तकों और पाँच शोधपूर्ण सागर) का बहुरंगी आवरण पृष्ठ 'अनेकान्त' के हार्द को मुखरित | जैन पत्रिकाओं में महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ खोजकर कृति को प्रामाणिक कर रहा है। प्रकाशक- राजपाल एण्ड संस कश्मीरी गेट, दिल्ली, बना दिया है। पृष्ठ 300 लगभग, मूल्य 95/-रु. संस्करण-1996
(7) प्रस्तुत कृति- कृतिकार की साहित्यिक अभिरुचि मुनि प्रमाणसागर जी जितने उच्च कोटि के विद्वान हैं, | आगम के तलस्पर्शी ज्ञान और मौलिक चिन्तन का एक ठोस उससे कहीं ज्यादा सरल/सहज हैं । वहाँ विद्वत्ता का लेशमात्र दिखावा दस्तावेज है। नहीं। अन्तर्मन को भाने वाली उनकी अप्रतिम प्रवचनशैली, जैसे (8) एक सच्चे संत का जीवन केवल किताबी ज्ञान का ज्ञान का अगाध-सागर अपनी उत्ताल तरंगों में तरंगायित हो रहा | शब्द-कोष नहीं होता, बल्कि संयम और तप की एक आलोकमयी हो या कहें कि निर्मल झरना प्रकृति की सुरम्य गोद से निकलकर दृष्टि उसके साथ सम्बद्ध होती है। एक आध्यात्मिक ऊर्जा उनके विद्या के अगम सागर में समालीन होने के लिए आतुर हो। जीवन की तेजस्विता को मुखरित करती रहती है। मुनिश्री ने जो
कृति का अवलोकन करने पर लगा कि जैन इतिहास, कुछ लिखा उसके पीछे उनके तप की एक दीर्घकालीन साधना दर्शन और धर्म की यह त्रिवेणी कितनी पावन है, कितनी मनभावन है।
(9) मैं पूरा जोर देकर कहना चाहूँगा कि इस कृति का मुनिश्री ने इस कृति का प्रणयन कर जैसे इसके प्रत्येक पृष्ठ | अंग्रेजी अनुवाद किया जाकर इसे जैनियों/जैनमंदिरों के अलावा पर अपने नाम की स्वयं सिद्धि अंकित कर दी हो। 98 मूल आर्ष | अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया जाना चाहिए, क्योंकि यह ग्रन्थों का नवनीत अपनी स्वानुभूति की कलम से मात्र 300 पृष्ठों | "All in one" जैन साइक्लोपीडिया है। विदेशों में इसे बड़े स्तर पर उतार कर 'अणु में विराट' की खोज चरितार्थ कर ली है, | पर पहुँचाई जानी चाहिए तथा देश के समस्त विश्वविद्यालयों के जिसमें एक वाक्य भी अकारथ नहीं दिखा।'
पुस्तकालयों में भेजी जानी चाहिए। कृति का वैशिष्ट्य
(10) जैनधर्म/दर्शन के प्रारम्भिक ज्ञान से अपरिचित भी (1) जैन इतिहास/धर्म/आचार और दर्शन सम्बन्धी कोई | इस कृति को मनोयोगपूर्वक पढ़ेगा तथा अपनी आस्था को एक नई भी प्रमुख विषय छूट नहीं पाया। छोटे-छोटे विन्यास से प्रस्तुत | दिशा/आयाम देगा। कृति सरल/सुबोध/सर्वग्राही बन गई है।
(11) इस कृति में प्रो. महेन्द्रकुमार जी का "जैनदर्शन", (2) लेखक की अभिव्यक्ति - 'गागर में सागर' की उक्ति | पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का "जैनधर्म", आ. समन्तभद्र स्वामी चरितार्थ कर रही है। नपे-तुले शब्दों में 'विषय का प्रतिपादन जैसे | की आप्त मीमांसा/रत्नकरण्डश्रावकाचार, आ. कुन्दकुन्द देव का संक्षिप्तीकरण कृतिकार की मूलभावना हो ।
समयसार, आचार्य विद्यानंद जी की अष्ट सहस्री के साथ-साथ (3) भाषा में प्रवाह, काव्यात्मक सौन्दर्य, कसावट और | गोमट्टसार, भगवती आराधना, मूलाचार आदि जैसे महान ग्रन्थों रोचकता है। पाठक को अथ से इति तक कृतिकार की ज्ञान- | की झलक एक साथ प्राप्त हो रही है। प्रतिभा/प्रज्ञा का दर्शन इस कृति के माध्यम से मिलता रहता है। | (12) संत कृतिकार की विनम्रता देखिये कि अपने पूज्य हिन्दी भाषा के साथ प्राकृत, संस्कृत का उपयोग तथा आंग्ल भाषा | गुरुवर आ. विद्यासागर जी को यह कृति समर्पित करते हुएके सन्दर्भ/टिप्पणों ने इसे अन्तर्राष्ट्रीय मानक पुस्तक श्रेणी (ISBN- I 'त्वदीय वस्तु तुभ्यमेव समर्पये' कहकर कर्तृत्व-पने के मिथ्या 32 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org