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प्राकृतिक चिकित्सा
मधुमेह का प्राकृतिक एवं अहिंसात्मक उपचार
डॉ. रेखा जैन
डायबिटीज एक आम रोग है। यह दुनिया के हर हिस्से में पाया जाता है। विचारणीय है कि इनमें से सिर्फ 50% को ही अपने भीतर विद्यमान रोग की जानकारी है। शेष 50% में रोग भीतर ही भीतर धीमे-धीमे बढ़ रहा है, लोग उससे अपरिचित हैं। यह रोग हर आर्थिक वर्ग के लोगों में पाया जाता है। गरीब इससे मुक्त नहीं हैं। लेकिन अभिजात वर्ग में इसकी संख्या अधिक है, गाँवों की तुलना में शहरी लोग अधिक तादाद में इस रोग से पीड़ित हैं ।
डायबिटीज है क्या?
डायबिटीज शरीर की इस क्रिया प्रणाली का रोग है। इससे शरीर के भीतर शक्कर की मात्रा जरूरत से ज्यादा हो जाती है और शरीर इसे इस्तेमाल नहीं कर पाता। हम अपने खान-पान में बड़ी मात्रा में कार्बोहाइड्रेट लेते हैं। कार्बोहाइड्रेट आँतों में पचकर शुगर में बदल जाता है। यह शुगर ग्लूकोस होती है। ग्लूकोस आँतों से खून में पहुँचता है और खून में घुलकर धमनियों द्वारा शरीर के हर हिस्से में पहुँच जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के खून में ग्लूकोस हमेशा दौरा करता रहता है। हमारे शरीर की अंतस्राव प्रणाली इस बात का खास ध्यान रखती है कि खून में ग्लूकोस का स्तर सदा एक समान बना रहे। ग्लूकोस का स्तर सदा एक समान रखने का काम इंसुलिन नामक हार्मोन का है, जो उदर में पाई जाने वाली ग्रंथि अग्न्याशय (पैनक्रियाज) के खास कोशिकीय समूहों में बनता है। जैसे ही खून में ग्लूकोस बढ़ता है वह अग्न्याशय इंसुलिन छोड़ देता है। इंसुलिन अपने असर से ग्लूकोस को शरीर की कोशिकाओं में भेज देता है। फिर भी खून में अतिरिक्त ग्लूकोस रह जाए तो इंसुलिन के प्रभाव में लीवर उसे अपने भीतर समेट कर ग्लाइकोजन में तबदील कर देता है। जरूरत के वक्त में संभाले रखता है । जब कभी हम इच्छाअनिच्छा से उपवास करते हैं और खून में ग्लूकोस की मात्रा घट जाती है तब ग्लाइकोजन दुबारा ग्लूकोस में बदलता है, हमारे काम आता है।
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ग्लूकोस हमारे शरीर का ही ईंधन है जो हमारी जीवन अग्नि को प्रज्वलित रखता है। खून में मिलकर आए ग्लूकोस और आक्सीजन से ही शरीर की हर कोशिका अपना काम-काज चलाती है ।
डायबिटीज की किस्में
डायबिटीज कई रूपों में होता है, जिन्हें मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँट दिया गया है। पहला वर्ग प्रायमरी डायबिटीज कहा गया है। इसके भी दो रूप हैं।
टाइप 1 डायबिटीज इंसुलिन डिपेंडेट डायबिटीज 34 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित
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(आई.डी.डी.) कहलाता है। यह प्राय: बचपन या किशोरावस्था में प्रकट होता है। इसमें अग्न्याशय इंसुलिन नहीं बना पाता और रोगी को जीवित रखने के लिए पूरी उम्र इंसुलिन के टीके लेने पड़ते हैं।
टाइप-2 डायबिटीज नान इंसुलिन डिपेंडेंट डायबिटीज (एन.आई.डी.डी.) इसमें रोगी जीने के लिए इंसुलिन इंजेक्शन पर आश्रित नहीं होता। यह डायबिटीज चालीस वर्ष की उम्र के बाद शुरू होता है। इससे पीड़ित होने वाले ज्यादातर शरीर से भारी होते हैं। उनका शारीरिक मेहनत से ज्यादा वास्ता नहीं रहता । आई.डी.डी. की तुलना में डायबिटीज की यह किस्म कम उग्र रहती है। इसमें रोगी को सही नपे-तुले खानपान और जीवन शैली में सुधार लाने की आवश्यकता रहती है ।
क्या आप जातने हैं इंसुलिन इंजेक्शन/ दवा से तैयार होता है।
जंतु अग्न्याशय इंसुलिन का सबसे बड़ा स्रोत है। गायबैल और भैंसों के अग्न्याशय से बोवाइन इंसुलिन और सुअरों से पोर्सीन इंसुलिन प्राप्त की जाती है। जंतुओं के शरीर से प्राप्त कर इसका विशुद्धीकरण किया जाता है और इसे शीशियों में भरा जाता है जो रोगियों के काम आता है ।
आदमी के जिस्म में बनने वाले इंसुलिन, बोवाइन इंसुलिन तथा प्रोसीन इंसुलिन की संरचना में यह समरूपता है कि प्रत्येक इंसुलिन 51 एमिनो एसिड्स से बनी है। पर तीनों की बनावट में एक एमिनो एसिड का अंतर है। तो बोवाइन इंसुलिन की बनावट में तीन एमीनो एसिड का अंतर है। शायद इसलिए कुछ डायबिटीज व्यक्तियों को बोवाइन या पोर्सीन इंसुलिन माफिक नहीं आती। हालाँकि ज्यादातर का जिस्म दोनों में से कोई एक इंसुलिन अपना ही लेता है ।
कुछ वर्षों से मानव इंसुलिन की हू बहू नकल भी बाजार में मिलने लगी है। यह इंसुलिन जीन इंजीनियरी से तैयार की गई है और विशुद्ध रूप से शाकाहारी है। पर यह अभी बहुत महँगी है। और सिर्फ उन्हीं रोगियों के लिए आवश्यक है, जिन्हें जंतु इंसुलिन माफिक नहीं आती है।
मधुमेह के कारण
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मानसिक तनाव, संक्रमण, अग्नाशय की रक्तवाहिनियों का संकरापन, अग्नाशय की सूजन, अग्नाशय का शल्यकर्म, अग्नाशय में ट्यूमर आदि कारणों से अग्नाशय की बीटा कोशिकाएँ इन्सुलिन का उत्पादन कम कर देती हैं पिट्यूटरी, एड्रिनल, थायराइड की अति क्रियाशीलता के कारण खून में सोमाटोट्रोपिक,
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