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प्रतीति होती है। शरीर में मेरा आत्मा भिन्न स्वभाव वाला है ऐसा | आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा हैदृढ़ विश्वास जागृत होता है। सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने वाले के
सम्मत्त विरहिया णं सुटु वि उग्गं तवं चरता । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य भाव प्रगट हो जाते हैं।
ण लहंति बोहिलाहं अविवाससहस्स कोडीहिं॥5॥दसणपाहुड सम्यग्दर्शन नियम से नि:शंकित , निकांक्षित, निर्विचिकित्सा, सम्यक्त्व से रहित मनुष्य भले प्रकार से कठोर तपश्चरण अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन | करें, तो भी हजार करोड वर्षों में भी उन्हें बोधि का लाभ नहीं आठ अंगयुक्त होना चाहिए। अंगहीन सम्यक्त्व संसार का विच्छेद
| होता। करने में समर्थ नहीं होता।
इस प्रकार सम्यक्त्व का श्रावक जीवन में महत्त्व को सम्यग्दर्शन में मलिनता पैदा करने वाले पच्चीस दोष हैं।
समझ लेने पर स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर ही ज्ञानमद, पूजापद, कुलमद, जातिमद, बलमद, ऋद्धिमद, रूपमद,
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह परिणाम रूप व्रतों की तपमद, लोकमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, देवमूढ़ता, छह अनायतन एवं आठ अंग के विपरीत शंका, कांक्षा आदि आठ दोष, इन सभी दोषों से
स्थिति बनती है। इन व्रतों का एक देश पालन करने वाला देशविरत रहित सम्यक्त्व मुक्तिमहल में पहुँचाने वाला है।
चारित्र का धारी श्रावक है। अणुव्रत धारक के गुणों में वैशिष्ट्य
उत्पन्न करने वाले गुणव्रत होते हैं । विशिष्ट शिक्षा प्रदान करने वाले आगम में सम्यग्दर्शन के सराग और वीतराग, निश्चय और व्यवहार, निसर्गज और अधिगमज, उपशम, क्षयोपशम और
शिक्षाव्रत होते हैं । अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत मिलकर श्रावक क्षायिक, आज्ञा आदि विविध दृष्टियों की विवक्षा से भेदों का
के द्वादश व्रत होते हैं। इन द्वादश व्रतों का धारी पञ्चम गुणस्थानवर्ती निरूपण है।
श्रावक है। इसकी लेश्या शुभ होती हैं । श्रावक के नियम से देवायु ' सराग सम्यक्त्व-प्रशम,संवेग आदि गुणों द्वारा जो अभिव्यक्त
का बन्ध होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि (कर्मभूमिया मनुष्य तिर्यञ्च) होता है, अथवा जिसका स्वामी सराग है, वह सराग सम्यक्त्व है।
के नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य का बन्ध ही नहीं होता। यदि आयु वीतराग सम्यक्त्व- आत्म विशुद्धि रूप अथवा जिसका स्वामी
बन्ध के बाद सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई तो बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि की वीतराग है वह वीतराग सम्यक्त्व है।
अपेक्षा कर्मभूमिज सम्यग्दृष्टि जीव चारों गतियों में जा सकता है। निश्चय सम्यक्त्व- सम्पूर्ण परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा
व्रतों की यह विशेषता है कि वह गृहस्थ को श्रावक संज्ञा से की प्रतीति (रुचि) निश्चय सम्यक्त्व है।
विभूषित करा देते हैं। श्रावक सम्यग्दर्शन से सम्पन्न ही होता है।
सम्यक्त्व और श्रावक में उपकारक-उपकार्य सम्बन्ध है । सम्यक्त्व व्यवहार सम्यक्त्व- तत्त्वार्थश्रद्धान रूप व्यवहार सम्यक्त्व
श्रावक का परम उपकारक है क्योंकि सम्यक्त्व के बिना, श्रावक परोपदेश के बिना होने वाला निसर्गज और परोपदेशपूर्वक
का अस्तित्व ही नहीं है । अतः श्रावक के लिए सम्यक्त्व सर्वाधिक होने वाला अधिगमज सम्यग्दर्शन होता है।
महत्त्वशाली है। जीवन को पवित्र करने वाला है। आत्मशुद्धि को
उत्पन्न करने वाला है। श्रावक को मोक्षमार्ग पर चलाने के लिए उपशम सम्यक्त्व-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, और सम्यक् ये तीन दर्शनमोहनीय की प्रकृत्ति तथा अनन्तानुबन्धी की चार कर्म
सहकारी है। सम्पूर्ण इच्छित लाभ को देने वाला है। मोक्षप्राभृत में प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम से सादि मिथ्यादृष्टि प्रथमपोशम
आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा हैसम्यक्त्व को प्राप्त होता है। अनादिमिथ्यादृष्टि के एकमिथ्यात्व
दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं। और चार अनन्तानुबन्धी के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है।
दसणविहीणपुरिसो ण लहइ तं इच्छियं लाहं ।।39॥ क्षयोपशम सम्यक्त्व- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा जो दर्शन से शुद्ध है, वही शुद्ध है, सम्यग्दर्शन से शुद्ध अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदयाभावीक्षय एवं सदवस्थारूप उपशम | मनुष्य ही मोक्ष प्राप्त करता हैं। जो सम्यक्त्व से रहित है उसे होने से तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने से क्षयोपशम सम्यक्त्व
इच्छित लाभ नहीं होता है। होता है। क्षायिक सम्यक्त्व- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व,
इस प्रकार श्रावक के जीवन में सम्यक्त्व की महत्ता को सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धी चार कषाय इन सात प्रकृतियों
जानकर कहा जा सकता है कि श्रावक के लिए सम्यग्दर्शन से के सर्वथा क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
बड़ी अन्य कोई सम्पदा नहीं है, उसे प्राप्त कर लेने से श्रावक द्वारा मुक्ति रूपी प्रासाद का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन श्रावक
सब कुछ पा लिया जाता है, और उसके खो देने से सब कुछ खो का मुख्य अलंकरण है। इसके बिना व्रतों का कोई महत्त्व नहीं
दिया जाता है। अतः श्रावक को सम्यग्दर्शन की सुरक्षा के लिए अथवा व्रतों का पालन असंभव है। अव्रती की श्रावक संज्ञा किसी
निरन्तर सावधान रहना चाहिए। भी शास्त्र में देखने को नहीं मिलती। हाँ सम्यक्त्व से शून्य कोई
उपाचार्य (रीडर), संस्कृत विभाग, व्यक्ति कितनी भी तपस्या करे उससे कोई लाभ नहीं है, जैसा कि |
दिगम्बर जैन कॉलिज, बड़ौत-250611 16 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित
है।
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