________________
श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल, एलोरा
गुलाबचन्द्र हिरामण बोरालकर समय की आवश्यकता समझकर प.पू. समंतभद्र महाराजश्री | प.पू. समंतभद्र महाराजश्री ने एलोरा गुरुकुल की स्थापना की पूरी ने सन् 1918 में महाराष्ट्र स्थित कारंजा में (जो महाराष्ट्र में जैनों की | जिम्मेदारी प.पू. आर्यनंदीजी महाराज को सौंपी। कहते हैं सिंह का काशी कहलाती है) श्री महावीर ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल की स्थापना | शावक भी पराक्रमी होता है। इसी तरह प.पू. आर्यनंदी महाराज ने की। बड़े बुजुर्गों को संस्कारित करने की बजाय छोटे-छोटे बालकों अपने गुरु समंतभद्र महाराज के आदेश का अक्षरशः पालन किया। पर बाल्यावस्था में डाले गये संस्कार चिरकाल तक टिकते हैं इस कार्यकर्ताओं ने तत्काल ग्यारह ग्यारह हजार रु. देकर फंड की दूरदृष्टिकोण को ध्यान में रखकर प.पू. महाराजश्री के विचारों में शुरुआत की। गुरुकुल प्रणाली का जन्म हुआ। उसी अवसर पर उनके विचारों स्थापना को तत्कालीन विद्वद्वर्ग एवं श्रेष्ठीवर्ग के सहकार्य से मूर्तरूप प्राप्त एलोरा में किस जगह गुरुकुल का भवन खडा हो इसका हुआ। लौकिक एवं अलौकिक (धार्मिक) पढ़ाई की पूरी व्यवस्था | निर्णय हुआ। कार्यकर्ताओं एवं ग्रामस्थों के सहकार्य से जगह ली की गयी। स्वयमेव प.पू. महाराजश्री ने धर्म की धुरा को सँभाला।। गयी एवं 7 जून 1962 को श्रुत पंचमी के शुभावसर पर प.पू.
पुष्प को अपनी सुगंध बताने के लिये कहीं जाना नहीं आर्यनंदीजी महाराज की मंगल उपस्थिति तथा पं. जगनपड़ता। उसकी महक पाकर रसिक स्वयं खिचा आता है। उसी मोहनलालजी शास्त्री कटनी वालों के शुभहस्ते मध्याह्न की मांगलिक प्रकार कारंजा गुरुकुल अपनी अनोखी कार्य प्रणाली से शीघ्र ही बेला में णमोकार मंत्र की ध्वनि के साथ श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम प्रतिष्ठा को प्राप्त हो गया एवं पूरे महाराष्ट्र प्रांत के छात्रों का आना गुरुकुल, एलोरा की स्थापना हुई। ज्ञानरूपी वृक्ष की कणिका प्रारंभ हुआ। ट्रस्ट मंडल की सेवाभावी वृत्ति से एवं महाराजश्री के एलोरा धरती में बोई गयी जिसे गुरुकुल के अधिष्ठाता बा.ब्र. मंगल आशीष से संस्था प्रगति पथ पर थी, किंतु यह स्थान मराठवाडा श्रद्धेय माणिकचंदजी चवरे (तात्याजी) की उपस्थिति प्राप्त हुई। प्रांत से काफी दूर होने से इच्छा होनेपर भी अनेक छात्र आर्थिक मराठवाडा प्रांत के जैनों की आशाएँ पल्लवित हो गई। लौकिक स्थिति के कारण गुरुकुलीय अध्ययन से वंचित रहते थे। समाज पढ़ाई के साथ ही धर्मिक संस्कारों के आरोपण का सुयोग्य स्थान की इसी आवश्यकता को समझकर मराठवाडा प्रांत में गुरुकुल | प्राप्त हो गया। स्थापना का विचार हुआ।
एलोरा औरंगाबाद-कचनेर-पैठण इत्यादि स्थानों के बारे में विचार विमर्श हुआ, स्थानावलोकन हुआ, किन्तु अपनी ऐतीहासिकता से पूरे विश्व में प्राचीन गुफाओं के कारण प्रसिद्ध एलोरा को सर्वदृष्टि से सुयोग्य समझा गया। यहाँ पर जैन, हिन्दू एवं बौद्धों की कुल 34 प्राचीन गुफाएँ हैं साथ ही पहाड पर स्थित 16 फीट की भगवान पार्श्वनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा का अकर्षण यहाँ पर है।
जैन धरोहर रूपी गुफाओं का संरक्षण, पहाड़ मंदिर की व्यवस्था, तथा यहाँ पर आने वाले दर्शनार्थी, तीर्थयात्रियों की व्यवस्था की आवश्यकता को ध्यान में रखकर अंत में यह निर्णय
आ. गुरुदेव समंतभद्र विद्यामंदिर, एलोरा लिया गया कि गुरुकुल की स्थापना एलोरा में ही होनी चाहिए। प.पू. समंतभद्र आचार्यश्री का दूरदृष्टिकोण
स्थापना का उद्देश्य प.पू. समंतभद्र आचार्यश्री की हमेश सोच रही कि केवल | भौतिक युग की चकाचौंध में होनेवाले धार्मिक पतन एवं भवन खड़े करने से संस्था नहीं चलती, बल्कि तन,मन,धन के | बिगड़ती सामाजिक परिस्थिति को ध्यान में रखकर महाराजश्री ने सर्मपण भाव से ही संस्था चलती है। इस भावना से महाराजश्री समाज के बच्चों के लिए लौकिक अध्ययन के साथ-साथ धार्मिक की पारखी नजर ने मराठवाडा में सक्रिय रूप से निष्कपट और अध्ययन को गुरुकुल की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य बनाया। गुरुकुल नि:स्वार्थ भावना से कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं की खोजबीन | में शिक्षा प्राप्त करनेवाला छात्र विश्व के किसी भी क्षेत्र में पीछे न की जिसमें मुख्यता से श्री तनसुखलालजी ठोले, श्री पन्नालालजी रहे अत:प्रेम, ज्ञान, व्यवस्था, शील एवं सेवा इस पंच सूत्र का गंगवाल, श्री हुकुमचंद जी ठोले इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। | निरतिचारपालन आज भी बच्चों एवं कार्यकर्ताओं के द्वारा किया कारंजा स्थित महावीर ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल की शाखा के रूप में | जाता है । स्वयं का कार्य स्वयं करने का शिक्षा मिलती है। यहाँ के
-अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 29
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org