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श्रावक और सम्यक्त्व
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन "श्रावक" शब्द का सामान्य अर्थ 'सुनने वाला' है अर्थात् । श्रेणियाँ भी बतायी हैं। "शृणोति हितवाक्यानि सः श्रावक" जो हितकारी वचनों को | श्रावक और सम्यक्त्व का विशेष सम्बन्ध है, क्योंकि सुनने वाला है, वह श्रावक है। पण्डित श्री आशाधर जी 'श्रावक' | सम्यक्त्व के बिना श्रावक हो ही नहीं सकता है, इसीलिए श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखते हैं "शृणोति गुर्वादिभ्यो | धर्म पर सर्वप्रथम स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखने वाले आचार्य श्री समन्तभद्र धर्ममितिश्रावकः" जो गुरु आदि के मुख से धर्म श्रवण करता है, ने प्रथमतः सम्यग्दर्शन की महिमा पर प्रकाश डाला है। सम्यग्दर्शन उसे श्रावक कहते हैं। श्रावक प्रज्ञप्ति नामक ग्रन्थ में भी इसी प्रकार | धर्म का मूल है, ज्ञान और चारित्र से पहिले प्राप्तव्य है। इसके बिना का कथन है
ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं है जैसाकि आचार्य श्री संमत्त दंसणाई पयदिहं जइजण सुणेई य।
समन्तभद्र ने कहा हैसामायारि परमं जो खलु तं सावगं विन्ति॥
विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः। जो सम्यग्दर्शनादि युक्त गृहस्थ प्रतिदिन मुनिजनों आदि के
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥31॥ पास जाकर परम समाचारी (साधु और गृहस्थों का आचार विशेष) जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती, को सुनता है, उसे श्रावक कहते हैं।
उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आगम साहित्य और श्रावकाचारों में 'श्रावक' को अन्य | उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अनेक संज्ञाओं से अभिहित किया गया है उपासक, श्रमणोपासक, ज्ञान और चारित्र से भी सम्यक्त्व श्रेष्ठ है, क्योंकि वह सद्गृहस्थ, सागार आदि। पञ्चपरमेष्ठी की उपासना को मुख्य | मोक्षमार्ग में कर्णधार है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरि ने सम्यक्त्व ध्येय बनाने वाला होने से उपासक, श्रमणों (मुनियों) की उपासना | की प्रथम भूमिका का वर्णन करते हुए कहा हैकरने वाले की अपेक्षा श्रमणोपासक, धर्म साधना करने वाला होने
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयलेन। से सागार कहलता है।
तस्मिन्सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रञ्च ॥-पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय 'श्रावक' प्रधानतया आज्ञाप्रधानी होता है। इसका यह तात्पर्य रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग में सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का अखिल कदापि नहीं है कि उसे जिज्ञासा, शंका, परीक्षा का अधिकार नहीं। प्रयत्न पूर्वक आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर ही हाँ, वह अपने गार्हस्थिक कार्यों में इतना व्यस्त होता है जिससे वह | ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं, जिससे मोक्षमार्ग बनता है। तर्क-वितर्क के लिए समय नहीं निकाल पाता है। यही कारण है | सम्यग्दर्शन की महिमा सभी आचार्यों ने गाई है। भावपाहुड कि आचार्यों ने श्रावकों के लिए श्रद्धा गुण की प्रधानता बतलायी में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-जैसे ताराओं में चन्द्र और समस्त है। श्रद्धा के साथ विवेक और क्रियावान् होने पर ही इसकी मृगकुलों में मृगराज सिंह प्रधान है, उसी प्रकार मुनि और श्रावक सार्थकता है। यह शब्द स्वयं में रत्नत्रय को गर्भित किए हुए हैं। दोनों धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है। जैसे कामधेनु कल्पवृक्ष, चिन्तामणि 'श्र' श्रद्धा (दर्शन), व विवेक (ज्ञान) क क्रिया (चारित्र)के | रत्न और रसायन को प्राप्त करके मनुष्य यथेच्छ सुख भोगता है वाचक हैं। तीनों वर्ण रत्नत्रय की सूचना देते हैं। अत: यह विय| वैसे ही सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्य यथेच्छ सुख भोगता है। होता है कि 'श्रावक' रत्नत्रय धर्म का धारक है। यह अवश्य कि | और भी कहा है कि जो पुरुष सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वही भ्रष्ट है, एकदेश रत्नत्रय का ही पालन कर सकता है, क्योंकि उसकी | उसे मोक्ष लाभ कभी नहीं हो सकता है, किन्तु जो चारित्रभ्रष्ट है मूर्छा पूर्ण रूप से समाप्त न होने के कारण और व्रतों का भी पूर्ण | और दर्शनभ्रष्ट नहीं है, वह पुनः चारित्र प्राप्त कर मुक्ति का वरण रूप से पालन न कर पाने के कारण वह अणुव्रती है, एकदेश | कर लेता है। जो पुरुष सम्यक्त्व रूप रत्न से भ्रष्ट हैं तथा अनेक रत्नत्रय का पालक है। रत्नत्रय धारक होने से ही 'श्रावक' संज्ञा शास्त्रों को जानते हैं तथापि आराधना से रहित होते हुए संसार में सार्थक मानी गई है। आचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने गृहस्थ साधक | ही भ्रमण करते हैं। आचार्य शिवार्य ने भी इसकी महत्ता का वर्णन के लिए 'सावय' (श्रावक) और सागार शब्द प्रयुक्त किए हैं, | करते हुए कहा है- "समस्त दु:खों का नाश करने वाले सम्यक्त्व उन्होंने 'श्रावक' को सग्रन्थ (परिग्रह सहित) संयमाचरण का में प्रमाद मत करो क्योंकि ज्ञानाचार, चारित्राचार, वार्याचार और उपदेश दिया है। पञ्चाणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत रूप | तप-आचार का आधार सम्यग्दर्शन है। जैसे नगर में प्रवेश करने बारह प्रकार का संयमाचरण बताकर देशविरत श्रावक की दर्शन, | का उपाय उसका द्वार है, वैसे ही ज्ञानादि की प्राप्ति का द्वार व्रत, सामायिक, प्रौषध, सचित्र त्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, | सम्यग्दर्शन है। जैसे आँखें-मुख की शोभा बढ़ाती हैं, वैसे ही आरम्भ त्याग, परिग्रहत्याग, अनुमति त्याग, उद्दिष्ट त्याग ये ग्यारह | सम्यग्दर्शन से ज्ञानादि की शोभा है। जैसे वृक्ष की स्थिति का 14 अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित
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