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व्यतीत करने का नाम उपवास है और इसी से उपवास धर्म का एक अंग तथा सुख का प्रधान कारण है।
जो लोग (पुरुष हो या स्त्री) उपवास के दिन झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, मैथुन सेवन करते हैं या अपने घर-गृहस्थी के धंधों में लगे रहकर अनेक प्रकार के सावद्यकर्म (हिंसाके काम) एवं छल-कपट करते हैं, मुकदमे लड़ाते और परस्पर लड़कर खून बहाते हैं तथा अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण पहनकर शरीर का श्रृंगार करते हैं, सोते हैं, ताश, चौपड़ तथा गंजिफा आदि खेल खेलते हैं, हुक्का पीते या तमाखू आदि सूंघते हैं और स्वाध्याय, सामायिक, पूजन, भजन आदि कुछ भी धर्म न करके अनादर तथा आकुलता के साथ उस दिन को पूरा करते हैं वे कैसे उपवास के धारक कहे जा सकते हैं और उनको कैसे उपवास का फल प्राप्त हो सकता है? सच पूछिये तो ऐसे मनुष्यों का उपवास नहीं है किन्तु उपहास है। ऐसे मनुष्य अपनी तथा धर्म दोनों की हँसी और निन्दा कराते हैं, उन्हें उपवास से प्राय: कुछ भी धर्म-लाभ नहीं होता । उपवास के दिन पापाचरण करने तथा संक्लेशरूप परिणाम रखने से तीव्र पाप बंध की संभावना अवश्य है।
हमारे लिये यह कितनी लज्जा और शरम की बात है कि ऊँचे पद को धारण करके नीची क्रिया करें अथवा उपवास का कुछ भी कार्य न करके अपने आपको उपवासी और व्रती मान बैठें।
इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि विधिपूर्वक उपवास करने से पाँच इन्द्रियाँ और मन शीघ्र ही वश में हो जाते हैं और इनके वश में होते ही उन्मार्ग-गमन रुककर धर्म-साधन का अवसर मिलता है। साथ ही उद्यम, साहस, पौरुष, धैर्य आदि सद्गुण इस मनुष्य में जाग्रत हो उठते हैं और यह मनुष्य पापों से बचकर सुख के मार्ग में लग जाता है। परन्तु जो लोग विधिपूर्वक उपवास नहीं करते उनको कदापि उपवास के फल की यथेष्ट प्राप्ति नहीं हो सकती। उनका उपवास केवल एक प्रकार का कायक्लेश है, जो भावशून्य होने से कुछ फलदायक नहीं क्योंकि कोई भी क्रिया बिना भावों के फलदायक नहीं होती ('यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या:') । अतएव उपवास के इच्छुकों को चाहिए कि वे
उपवास के आशय और महत्त्व को अच्छी तरह समझ लें, वर्तमान विरुद्धाचरणों को त्याग करके श्रीआचार्यों की आज्ञानुकूल प्रवर्ते और कम-से-कम प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी को (जो पर्व के दिन हैं) अवश्य ही विधिपूर्वक तथा भाव सहित उपवास किया करें। साथ ही इस बात को अपने हृदय में जमा लेवें कि उपवास के दिन अथवा उपवास की अवधि तक व्रती को कोई भी गृहस्थी का धंधा या शरीर का श्रृंगारादि नहीं करना चाहिए। उस दिन समस्त गृहस्थारंभ को त्याग करके पंच पापों से विरक्त होकर अपने शरीरादिक से ममत्व-परिणाम तथा राग भाव को घटाकर और अपने पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा क्रोध, मान, मायादि कषायों को वश में करके एकान्त स्थान अथवा श्री जिनमन्दिर आदि में बैठकर शास्त्र- स्वाध्याय, शास्त्र - श्रवण, सामायिक, पूजनभजन आदि धर्म कार्यों में काल को व्यतीत करना चाहिए । निद्रा कम लेनी चाहिए, आर्त रौद्र परिणामों को अपने पास नहीं आने देना चाहिए, हर समय प्रसन्न वदन रहना चाहिए और इस बात को याद रखना चाहिए कि शास्त्र- स्वाध्यायादि जो कुछ भी धर्म के कार्य किये जावें वे सब रुचिपूर्वक और भावसहित होने चाहिये। कोई भी धर्म कार्य बेदिली, जाब्तापूरी या अनादर के साथ नहीं करना चाहिये और न इस बात का ख्याल तक ही आना चाहिए कि किसी प्रकार से यह दिन शीघ्र ही पूरा हो जाये क्योंकि बिना भावों के सर्व धर्मकार्य निरर्थक हैं । जैसा कि आचार्यों ने कहा है
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फारोखी मुस्लिम बंधु को गोमाता
नवागढ़ (परभणी) मुनि श्री समाधिसागरजी का मौन निर्जल, बेमुद्दत अनशन आंदोलन प्रारंभ होने पर उन्हीं के आशीर्वाद से उपस्थित समुदाय के समक्ष विघ्नहर नेमिनाथ गौशाला के संरक्षक श्री नरेन्द्र सावजी, श्री शशीकांत सावजी तथा क्षेत्र उपाध्यक्ष श्री बबनराव बैण्डसुरे के हस्तकमल से श्री मो. युनुसोद्दीन फारोखी M.Sc. (Maths), B.Ed. संस्थापक व सचिव भारतीय गौवंश व पर्यावरण संरक्षण परिषद् 244/31 लेबर कॉलोनी, नांदेड़ को उनकी अहिंसा सेवा के उपलक्ष्य में गौशाला की ओर से गौमाता रक्षा शिरोमणि सम्मान पत्र दिया गया। आपको पढ़कर आश्चर्य होगा कि उन्होंने इसी काम के लिए अपनी नौकरी भी छोड़ दी तथा पूरे परिवार को भी शाकाहारी बनाया और उन्होंने भी मांसाहार त्यागा था, फिर भी मुनिश्री के समक्ष मांसाहार एवं मदिरा का आजीवन त्याग किया। उनकी 'अपनी गौरक्षण' संस्था
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'जो मनुष्य बिना भाव के पूजादिक, तप, दान और जपादिक करता है अथवा दीक्षादि ग्रहण करता है उसके वे सब कार्य बकरी के गलेमें लटकते हुए स्तनों के समान निरर्थक हैं । '
अर्थात् जिस प्रकार बकरी के गले के स्तन निरर्थक हैं, उनसे दूध नहीं निकलता, वे केवल देखने मात्र के स्तन हैं, उस ही प्रकार बिना तदनुकूल भाव और परिणाम के पूजन, तप, दान, उपवासादि समस्त धार्मिक कार्य केवल दिखावामात्र हैं- उनसे कुछ भी धर्म-फल की सिद्धि अथवा प्राप्ति नहीं होती है।
भावहीनस्य पूजादि तपोदान-जपादिकम् । व्यर्थं दीक्षादिकं च स्यादजाकंठे स्तनाविव ॥
रक्षा शिरोमणि सम्मान पत्र
की प्रगति हेतु नेमगिरि गौशाला अध्यक्ष श्री अशोक सावजी ने गौशाला की ओर से 1008 रु. दान की घोषणा के साथ-साथ पैसे भी दिये। फारोखी जी के कथनानुसार वे मुस्लिम बंधुओं में भी अहिंसा का प्रचार कर रहे हैं और वे दावे के साथ कहते हैं कि वैध कत्लखानों में भी अवैध ही हिंसा होती है, वह बंद होना चाहिए। ऐसे फारोखी जी से सीख लेकर हमें भी समय निकालकर अहिंसा की कार्य करना चाहिए।
इन सब कार्यों को नादेड़ निवासी डॉ. साजने तथा उनके साथियों का अमूल्य सहकार्य प्राप्त हुआ ।
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मुनिश्री समाधिसागरजी द्वारा स्थापित विघ्नहर आर्यनंदी सेवादल नावगढ़, जि. परभणी- 431401 (महा.)
अक्टूबर-नवम्बर 2002 जिनभाषित 13
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