Book Title: Jinabhashita 2002 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ बुन्देलखण्ड शुद्धाम्नाय का पोषक रहा, जो उचित ही है। के बाद बहुत अच्छा लगा, क्योंकि ऐसी सूक्ष्म जानकारी अन्य ___आपका यह मत सही है कि पूजा पद्धति समाज को वर्गीकृत | किसी पत्रिका में नहीं प्राप्त होती। "आपके पत्र'' कॉलम में पाठकों न करे और न ही इसमें कोई हस्तेक्षप करे। ऐसा कतिपय मुनिराज | की संख्या को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इस कम्प्यूटर के करते हैं। जहाँ तक विवेकसंगत हो, अहिंसा की आराधना- | युग में भी लोग समय निकालकर सार तत्त्वों से सहित पत्रिका साधनानुसार पूजा पद्धति शुद्ध प्रासुक, अहिंसक या न्यूनतम 'जिनभाषित' को पढ़कर पत्रिका का विस्तार कर रहे हैं एवं जरूरी हिंसायुक्त हो जिससे भावानुसार अधिकतम पुण्यबंध हो, यही इष्ट जानकारी से ज्ञानकोष बढ़ा रहे हैं। अत: मैं ऐसे लोगों का आभार है। फल तो भावों का होता है। समाजभय से सचित्त को इष्ट मानते | मानता हूँ। हुए बाह्य में मौन रहना और अचित्त की पुष्टि न करना भी दोषपूर्ण __ श्रीपाल जैन होता है। आप सम-सामयिक विषयों पर मार्गदर्शन कर उससे मेनरोड, गोटे गाँव (नरसिंहपुर) म.प्र. सम्बन्धित विचारों को प्रकाशित कर पाठकों को निर्णय का अवसर 'जिनभाषित' का जून, 2002 अङ्क मिला। आपने संपादकीय देते हैं। धन्यवाद! अंक की अन्य रचनाएँ भी ज्ञान एवं स्वास्थ्यवर्द्धक में त्याग और मानवता की मूर्ति महाकवि आचार्यश्री ज्ञानसागर जी हैं । बधाई! बाबत अच्छी जानकारी देकर बहुत अच्छा काम किया है। उनके डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल लोकोत्तर शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी देश में ज्ञान का प्रकाश बी-369, ओ.पी.एम. अमलाई फैला रहे हैं। मुनि श्री क्षमसागर जी का लेख-'वीतरागता की (समाजभय से या स्वगृहीत मान्यता के विरोधी होने पराकाष्ठा' बहुत अच्छा लगा। डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' का से आर्षवचनों का प्रच्छादन एवं उन पर अनार्षत्व का आरोपण प्रश्न 'सजा किसे?' बहुत अच्छा लगा। डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' ने भी दोषपूर्ण है-सम्पादक) अपनी कलम से यह सही लिखा है कि 'चिंतन से श्रेष्ठ विचार 'जिनभाषित' का जून, 2002 का अंक पाकर प्रसन्नता प्रकट होते हैं।' यदि अपने कार्यों का लगातार चिंतन करें, तो हुई। इसमें आपने पत्रस्तम्भ में मेरे पत्र को भी सम्मिलित करके निश्चित ही हमने क्या अच्छा किया और क्या बुरा किया, यह मूल्यवान् बनाया, इसके लिए भूरि-भूरि साधुवाद लें। पिक्चर सामने आ जाती है तथा यही पिक्चर हमें बुरे कार्यों से दूर रहने तथा अच्छे कार्यों की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है। परन्तु, मरे पत्र में आर्हत्' अशुद्ध छप गया है। शुद्ध शब्द यदि इसी प्रकार का चिंतन समाज और देश के बारे में सभी लोग हलन्तहीन 'आहत' है। जैसे 'भगवत्' से, अण् प्रत्यय करने पर, करने लगें तो आगे आने वाले दिन बहुत सुनहरे हो सकते हैं । डॉ. 'भागवत' होता है, वैसे ही 'अर्हत्' से 'आहत' होता है। रेखा जैन का प्राकृतिक चिकित्सा पर लेख-'दमा का उपचार' उन महामहिम आचार्य श्री ज्ञान सागरजी महाराज पर केन्द्रित सभी रोगियों के लिए बहुत उपयोगी है, जो इस बीमारी से पीड़ित यह अंक उनके तपोदीप्त प्रशिष्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी हैं। पत्रिका के प्रत्येक अंक में इस तरह की सामग्री लगातार देते महाराज के साहित्यानुसन्धान कार्य का ही पल्लवित क्रोडपत्र है, रहें तो बहुत अच्छा होगा। पत्रिका शुरू से अंत तक पठनीय, इसमें सन्देह नहीं। साधुवाद। ज्ञानवर्धक व बहुत सारी जानकारियों से युक्त है। डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव शुभकामनओं सहित। पी.एन.सिन्हा कॉलोनी, भिखनापहाड़ी, पटना-800004 राजेन्द्र पटोरिया सम्पादक, 'जिनभाषित' का जून अंक 5 बेहद रोचक लगा है। पत्रिका खनन भारती में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की जीवनयात्रा को विस्तार से पढ़ने सिविल लाइन्स, नागपुर आई.ए.एस. (प्री) में 3 प्रशिक्षार्थी उत्तीर्ण जैनाचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीष व | श्री सत्येन्द्र जैन कँदवाँ, श्री अभिलाष जैन, सागर एवं मुख्य | प्रेरणा से संचालित भारतवर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण | परीक्षा में तीन क्रमशः कु. वन्दना जैन, कु. अरुणा सचान एवं संस्थान मढ़िया जी जबलपुर के 3 प्रशिक्षार्थी क्रमश: श्री राजीव श्री नीलेश जैन कोतमा उत्तीर्ण हुए हैं। संस्थान निदेशक अजित जैन बाँदा, श्री मनीष जैन, बन्डा एवं श्री सत्येन्द्र जैन कँदवाँ ने जैन एडवोकेट एवं अधीक्षक मुकेश सिंघई द्वारा दी गई जानकारी आई.ए.एस. (प्री.) में उत्तीर्ण होकर समाज एवं नगर के गौरव | के अनुसार संस्थान के चालू सत्र में 86 प्रशिक्षार्थी प्रशिक्षणरत में श्री वृद्धि की। उक्त के अतिरक्त यूपीपीएससी (प्री) में चार प्रशिक्षार्थी क्रमश: कु. प्रीति जैन ललितपुर, श्री राजीव जैन बाँदा, मुकेश सिंघई 4 अगस्त 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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