Book Title: Jinabhashita 2002 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 9
________________ तीर्थ संस्कार संरक्षण में अपूर्व अवदान सुमतचन्द्र दिवाकर, सतना (म.प्र.) राजा श्रेयांस द्वारा भगवान ऋषभदेव को प्रथम बार आहार | दिगम्बर जैनों के लिए अनजाने थे, उन्हें उनकी महिमा से अवगत दान दिया गया था। यह आहारदान एक गृहस्थ के द्वारा दिगम्बर कराया। इसी प्रकार दक्षिण भारतीयों को उत्तर तीर्थों के प्रति मुनि को दिया गया उस युग का दिशानिर्देशक दान था। राजा रुचिवंत बनाया। बारह वर्षीय अपने अथक प्रयासों से पूरे दिगम्बर श्रेयांस द्वारा दिशानिर्देशन के कारण उन्हें दान तीर्थ का प्रवर्तक | समाज में अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर तीर्थों के प्रति कर्त्तव्यबोध माना जाता है। उनका गौरव सर्वश्रेष्ठ दान दातारों की श्रेणी में की एक अमिट लहर प्रवहमान करने का दुर्लभ कार्य उन्होंने पूरा स्थापित हुआ। उसी प्रकार पूज्य 108 आर्यनन्दी जी मुनि महाराज | किया। साथ ही, अखिल भारतवर्षीय तीर्थक्षेत्र कमेटी के लिए ने वर्तमान युग में तीर्थ रक्षा के हितार्थ संकल्प लिया था। उन्होंने एक कोटि का फंड एकत्रित कर अपने गुरु समन्तभद्र महाराज की तीर्थ क्षेत्र रूपी प्राचीन जैन सांस्कृतिक धरोहरों के रक्षण हेतु आज्ञा का पालन तथा अपने द्वारा किये संकल्प की पूर्ति के साथ समस्त दिगम्बर जैन समाज के मन में कर्त्तव्यबोध और निजत्व ही श्वेताम्बरों से स्पर्धा हेतु सक्षम बनाया। इस संकल्प पूर्ति के बोध का मंत्र फूंका। आतताइयों से तीर्थों के संरक्षण हेतु समाज बारह वर्षीय अन्तराल में आचार्य आर्यनन्दी महाराज ने शक्कर का को यथा सामर्थ्य दान देने हेतु प्रोत्साहित किया। इस प्रकार सम्पूर्ण त्याग किया हुआ था। तीर्थक्षेत्रों के प्रति कर्त्तव्यबोध की इस दिगम्बर जैन समाज से विपुल धन दान कराकर अखिल भारतीय | आदर्श भावना तथा अपने गुरु की आज्ञा की दृढ़ता ने ही उन्हें तीर्थ तीर्थ रक्षा कमेटी के कोश को तीर्थरक्षण में सक्षम बनाया, इसलिये रक्षा शिरोमणि तिलक बना दिया। उन्हें 'तीर्थ रक्षा शिरोमणि तिलक' माना जाना सर्वथा उपयुक्त है। पूज्य आर्यनन्दी जी महाराज को यह गौरवपूर्ण तीर्थरक्षा इस पुण्यकार्य को करते हुए अनेक स्थानों पर अज्ञानियों द्वारा उन | शिरोमणि तिलक उपाधि पूज्य आचार्य विमलसागरजी महाराज पर चलाए आलोचना रूपी व्यंग्य बाणों का उन्होंने सहजता से | तथा पूज्य ऐलाचार्य विद्यानन्द जी महाराज की अनुशंसा से अखिल सामना किया। तर्क-वितर्क तथा अनेक प्रकार के समाधानों द्वारा भारतवर्षीय तीर्थरक्षा कमेटी ने समर्पित की। यद्यपि महाराजश्री ने उन्हें दान का औचित्य समझाना पड़ा। अनेक स्थानों पर कतिपय | इसे परिषह जय के रूप में ही स्वीकारा। इस प्रकार तीर्थरक्षा व्यक्तियों द्वारा उन्हें दिगम्बर मुनि की मर्यादा का बोध कराने का शिरोमणि तिलक के कर्त्तव्य की गरिमा ही नहीं, अपितु भारतअनधिकृत प्रयास किया गया, परन्तु पूज्य आर्यनन्दी महाराज ने वर्षीय तीर्थ रक्षा कमेटी के अपने गौरव का इतिहास भी है। यद्यपि सदैव अपनी समता तथा सरलता को बनाये रखा। यहाँ तक कि महाराज श्री ने इन उपाधियों से हमेशा इंकार किया है। वे तो अपने अनेक दिगम्बर साधुओं ने भी उन्हें परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा। | आप को मुनि भी नहीं मानते थे- उनका कहना था कि मुनि कौन? महाराजश्री इन तमाम स्थितियों का सामना करते हुए निष्काम जिसकी “पाँचों इन्द्रियाँ और मन मौन हो गया हो-वह मुनि है।" कर्मयोगी की तरह मंजिल की ओर बढ़ते रहे। अभी तो मैं अनगारी मात्र हूँ। घर-गृहस्थी छोड़ने वाला पाँच उन्होंने महाव्रतों का निरतिचार पालन करते हुए सम्पूर्ण महाव्रतों का पालन करने वाला साधु अनगारी कहलाता है । मैं तो भारत के प्रायः समस्त तीर्थों की वंदना हेतु यात्रा की। उन्होंने एक विद्यार्थी की तरह मुनि बनने का अभ्यास कर रहा हूँ। अनेक अनेक नगरों का भ्रमण करते हुए चालीस हजार किलोमीटर भूमि जन्मों तक दिगम्बर महाव्रतधारी बनकर अभ्यास करूँगा, तब मुनि अपने उपनय पदों से नापी। इन यात्राओं में सर्दी, गर्मी, आतप तथा | बन पाऊँगा। हिंसक पशुओं का सामना किया, दुष्ट अज्ञानियों द्वारा निन्द्य वचनों | तीर्थरक्षण के पुनीत संकल्प की प्रेरणा द्वारा आदि अन्य अनेक परिषहों का सामना शान्ति समतापूर्वक वे एक कोटि फंड के एकत्रित करने के संकल्प का संदर्भ करते रहे। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी से जुड़ा है। तीर्थक्षेत्र ये यात्राएँ मात्र अर्थसंकलन हेतु ही नहीं थीं, अपितु इन कमेटी की स्थापना सन् 1902 में हुई। सन् 1959 में सर सेठ यात्राओं से तीर्थ क्षेत्रों की व्यावहारिक कठिनाइयों को भी उन्होंने | हुकुमचंद जी के स्वर्गवास के पश्चात् उनका पदभार श्रावकशिरोमणि समझा। वहाँ की कमियों का अवलोकन कर उनके संरक्षण, | साहू शान्ति प्रसाद जी ने सम्हाला। इधर श्वेताम्बरों के उत्पात और संवर्द्धन के लिए अपने अमूल्य अनुभवपूर्ण सुझाव दिए। ये अनुभव दबाव तीर्थक्षेत्रों पर निरंतर बढ़ रहे थे। उनके पास अर्थ की उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन में 30 वर्षीय शासकीय सेवा में रहते । प्रचुरता थी। साहूजी के पदभार सम्हालने के लगभग 10 वर्ष हुए अर्जित किये थे। अनेक तीर्थ क्षेत्र जो समय की आँधी के गर्त | पश्चात् सन् 1969 में तीर्थक्षेत्र कमेटी की बैठक पूज्य समन्तभद्र में ढंक गये थे, उनके उन्नयन हेतु जनमानस को जाग्रत किया। महाराज के सान्निध्य में कुम्भोज बाहुबली में हुई। उस बैठक में महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के अनेक तीर्थ, जो उत्तर भारतीय | आचार्य श्री समन्तभद्र जी ने कहा कि "दोस्ती और दुश्मनी बराबर -अगस्त 2002 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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