Book Title: Jinabhashita 2002 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 27
________________ आस्त्रव भावना संवर भावना ज्यों सरजल आवत मोरी त्यों आस्रव कर्मन को। ज्यों मोरी में डाट लगावै तब जल रुक जाता। दर्वित जीव प्रदेश गहै जब पुद्गल भरमन को। त्यों आस्रव को रोकै संवर क्यों नहिं मन लाता।। भावित आस्रव भाव शुभाशुभ निशदिन चेतन को। पंच महाव्रत समिति गुप्ति कर वचन काय मन को। पाप पुण्य ये दोनों करता कारण बंधन को ॥16॥ दशविध धर्म परीषह बाइस बारह भावन को ॥18॥ शब्दार्थ : सर= सरोवर, आवत= आता है, मोरी-नाली, शब्दार्थ : डाट - ढकन। दर्वित योग सहित, गहै ग्रहण करता है। अर्थ : जिस प्रकार नाली में ढक्कन लगा देने से आता हुआ अर्थ : जिस प्रकार नाली का पानी सरोवर में आता है इसी जल रुक जाता है, उसी प्रकार आस्रव अर्थात् आते हुए कर्मों को प्रकार आत्मा में कर्मों का आस्रव होता है। तीनों लोकों में भरी हुई रोकने में संवर कारण है। ऐसे संवर को प्राप्त करना चाहिये। पाँच पुद्गल वर्गणा (कार्मण वर्गणा) को, योग सहित आत्मा के प्रदेश महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दस धर्म, बाईस परीषह एवं ग्रहण करते हैं। यह द्रव्यास्त्रव है। प्रति समय (दिन-रात) आत्मा | बारह भावना ये आस्रव के रोकने में अर्थात् संवर में कारण हैं। में होने वाले शुभाशुभ भावों के आधार पर भावास्रव होता है। यह सब भाव सतावन मिलकर आस्रव को खोते। शुभ भावों से पुण्यास्रव और अशुभ भावों से पापास्रव सुपन दशा से जागो चेतन कहाँ पडै सोते ।। होता है। ये पुण्य भाव एवं पाप भाव ही कर्मों का बंध कराने में भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध भावन संवर पावै। भी कारण हैं। डॉट लगत यह नाव पड़ी मझधार पार जावै ॥19॥ पन मिथ्यात योग पंद्रह द्वादश अविरत जानो। शब्दार्थ : धोते= दूर करते, मंझधार = बीच समुद्र में। पंचरु बीस कषाय मिले सब सत्तावन मानो। अर्थ : उपर्युक्त कहे गये 57 भाव आस्रव को दूर करते हैं। मोह भाव की ममता टारै पर परणत खोते। | हे चेतात्मा ! तुम स्वप्न अवस्था से जाग जाओ, कहाँ पड़े हो, कहाँ करे मोखका यतन निरास्त्रव ज्ञानी जन होते ॥17॥ | मोह रूपी निद्रा में सो रहे हो! शब्दार्थ : पन-पाँच, खोते दूर करने से। जिस प्रकार डॉट लगाने से बीच समुद्र में पड़ी नाव किनारे अर्थ : पाँच मिथ्यात्व (एकान्त, विपरीत, विनय, संशय, | तक पहुँच जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावों से रहित अज्ञान) योग पन्द्रह, अविरति बारह और कषाय पच्चीस, से सब शुद्ध भावना रूप संवर की भावना से, जीव संसार रूपी समुद्र से मिलकर आस्रव के 57 भेद हो जाते हैं। रागद्वेष आदि ममत्व- | पार हो जाता है। अहंकार को दूर करके,पर परणति से भी दूर रहने वाले मोक्ष अर्थकर्ता-ब. महेश जैन पुरुषार्थ में समर्थ ज्ञानी जन ही आस्रव से रहित होते हैं। श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर (जयपुर) जीवन है बादल की बूंद लालचन्द्र जैन 'राकेश' गंजबसौदा जीवन है बादल की बूंद, कब गिर जाये रे। होनी-अनहोनी जाने कब घट जाये रे ॥ इस जीवन के इन्द्रधनुष की, शोभा अतिशय-न्यारी। किन्तु स्वप्न के राजपाट ज्यों, विनसत लगै न बारी॥ जीवन है बादल की बूंद, कब गिर जाये रहे। जीवन है...॥ । खेल-खल में बीता बचपन, विषयन अंध जवानी। जर्जर देह बुढ़ापा आया, हो गइ ख़त्म कहानी॥ जीवन है सांसों की हाट, कब उठ जारे रे । जीवन है...॥ एक पेड़ पर करने आये, पंछी रैन बसेरा। वैसे मिल परिवार जनों ने, डाला घर में डेरा॥ जीवन है पथिकों का मेल, कब छूट जाये रे । जीवन है... | जीवन का घट रीत रहा है, ज्यों अंजलि का पानी। जानबूझकर अंध बने हैं, अच्छे-अच्छे ज्ञानी ॥ बर्फ डली सम छोटा जीवन, कब घुल जाये रे। जीवन है... ॥ चेतन राजा खींच रहे हैं, तन की टूटी गाड़ी। आयु का ईंधन जब चुक जाये, रुक जाती है नाड़ी॥ जीवन है सांसों की रेल, कब रुक जाये रे ।। जीवन है...॥ रहे न जीवन कभी एक सा, सुख-दुख आँख मिचौनी। कभी नहीं सोची थी ऐसी, हो जाती अनहोनी ॥ जीवन है मेघों की छाँव, कब छंट जाये रे । जीवन है... ॥ सम्पर्क सूत्र - नेहरु चौक, गली नं. 4, गंजबसौदा (विदिशा) -अगस्त 2002 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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