Book Title: Jinabhashita 2002 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ जिनदेव दर्शन की सार्थकता संसार के सभी मनुष्य प्रातः उठकर सर्वप्रथम अपने इष्टदेव का स्मरण करते हैं, जिन्हें वे परमपिता परमेश्वर ब्रह्मा या ईश्वर कहते हैं । भारतवर्ष में मनुष्य अध्यात्म को जीवन का एक अनिवार्य कर्म मानता है । धर्म उसकी आत्मा में बसता है और क्रियाओं में दिखता है। वह उतना कानून से नहीं डरता जितना कि धर्म से डरता है। पुण्य में संलग्न मनुष्य पाप कार्यों से निवृत्ति चाहता है जैनधर्म में परमात्मा को 'जिन' संज्ञा प्राप्त है, क्योंकि इन्द्रियों को जीते बिना जिन संज्ञा प्राप्त नहीं होती। जिन बिम्ब के दर्शन प्रत्येक जैनी का प्रमुख कर्त्तव्य माना गया है। समाज में ऐसा व्यक्ति प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। राग-द्वेष से परे इन्द्रियजयी, हितोपदेशी, वीतरागी अरहन्त (सर्वज्ञ) भगवान की प्रशान्त मुद्रा युक्त छवि हमारे मनमस्तिष्क में सदैव विद्यमान रहती है। संसार में सुख की चाह जिन्हें है वे प्रातः काल उठकर जिनदेवदर्शन करते हैं। आचार्य सकलकीर्ति ने पार्श्वनाथ चरित में लिखा है कि-" जिनेन्द्र भगवान के उत्तम विम्ब आदि का दर्शन करने वाले धर्माभिलाषी भव्य जीवों के परिणाम तत्काल शुभ व श्रेष्ठ हो जाते हैं। जिनेन्द्र भगवान का सादृश्य रखने वाली महाप्रतिमाओं के दर्शन से साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् का स्मरण होता है, निरन्तर उनका साक्षात् ध्यान होता है और उसके फलस्वरूप पापों का निरोध होता है। जिनबिम्ब में समता आदि गुण व कीर्ति, कान्ति व शान्ति तथा मुक्ति का साधनभूत स्थिर वज्रासन और नासाग्रदृष्टि देखी जाती है। इसी प्रकार धर्म के प्रवर्तक जिनेन्द्र भगवान् में ये सब गुण विद्यमान हैं। तीर्थंकर प्रतिमाओं के लक्षण देखने से उनकी भक्ति करने वाले पुरुषों को तीर्थंकर भगवान का परम निश्चय होता है इसलिये उन जैसे परिणाम होने से, उनका ध्यान व स्मरण आने से तथा उनका निश्चय होने से धर्मात्मा जनों को महान पुण्य होता है। जिस प्रकार अचेतन मणि, मन्त्र, औषधि आदि विष तथा रोगादिक को नष्ट करते हैं, उसी प्रकार अचेतन प्रतिमाएँ भी पूजा - भक्ति करने वाले पुरुषों के विष तथा रोगादिक (जन्म-मरण के रोग) को नष्ट करती हैं । ऐसी महनीय प्रभावशाली जिनभक्ति कही गयी है। लोकमर्यादा है कि रिक्तपाणिनं पश्येत् राजानं देवतां गुरुम् । नैमित्तिकविशेषेण फलेन फलमादिशेत् ॥ अर्थात् राजा, गुरु और देव के समक्ष खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिये। निमित्तनैमित्तिक तथा द्रव्य की विशेषता से फल में भी विशेषता आती है। हमारे यहाँ जिनदेव के समक्ष चढ़ाये जाने वाले द्रव्यों में भी संसारमुक्ति की कामना समाहित है। Jain Education International डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' द्रव्य चढ़ाते समय व्यक्ति/ क/पूजक यही भावना भाता है। जल चढ़ाते समय जन्म जरामृत्यु के नाश, चंदन चढ़ाते समय संसार के ताप के नाश, अक्षत (चावल) चढ़ाते समय अक्षय पद (मोक्ष) प्राप्ति, पुष्प चढ़ाते समय काम भावना के नाश, नैवेद्य चढ़ाते समय क्षुधा नाश, दीप चढ़ाते समय अज्ञान नाश, धूप चढ़ाते समय अष्ट कर्मों के नाश और फल चढ़ाते समय मोक्ष फल प्राप्ति की भावना रखते हुए, मोक्षपद प्राप्ति की कामना करता है। जो सही साधक है, पूजक है उसे संसार स्वर्ग के सुख नहीं, बल्कि मोक्षसुख की ही प्रबल और एकमात्र चाह रहती है। उसकी सब क्रियाएँ, भावनाएँ आत्मा से आत्मा के लिये होती हैं, शरीर को तो वह मात्र साधक मानता है। देवदर्शन का फल देवदर्शन की प्रक्रिया से ही प्रारम्भ हो जाता है। आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण में लिखा है कि "जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चिन्तवन करता है वह बेला का, जो उद्यम का अभिलाषी होता है वह तेला का, जो जाना प्रारम्भ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुँच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मन्दिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मन्दिर के आँगन में प्रवेश करता है वह छह मासोपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह शत वर्षोपवास का, जो जिनेन्द्रदेव के मुख का दर्शन करता है वह सहस्र वर्षोपवास का और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास का फल प्राप्त करता है। वास्तव में जिनेन्द्रभक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है। जिनभक्ति से कर्मक्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो जाते हैं वह अनुपम सुख से सम्पन्न परम पद को प्राप्त होता है।" 7 जब हम जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं तब हमें रागी और वीतरागी, शरीर और आत्मा का भेद ज्ञात होता है। कवि कहता है कि भक्त और भगवान में बस यही तो अन्तर है कि हम संसार में दुःखी हैं और वे शरीर छोड़कर परमात्म पद को प्राप्त हो चुके हैं तुममें हममें भेद यह और भेद कछु नाँहिं । तुम तन तज परब्रह्म भये हम दुखिया जगमाँहिं ॥ स्वयं के शरीर में विद्यमान आत्मा को नहीं पहचानना अविद्या है और स्वयं की चैतन्य आत्मा को पहचानना विद्या है। अध्यात्म रामायण में आया है कि देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता । नाहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विद्येति भण्यते ॥ अर्थात् "मैं शरीर हूँ " इस प्रकार शरीर में एकत्वबुद्धि • अगस्त 2002 जिनभाषित 13 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36