Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 8
________________ पत्तेयतलं मुत्तुं, पंचवि पुढवाइणो सयललोए,। सुहुमा हवंति नियमा, अंतमुहुत्ताऊ अहिस्सा ॥ १४ ॥ प्रत्येक वृक्ष (प्रत्येक वनस्पतिकाय) को छोड़कर पृथ्वीकाय आदि पांचों ही (पृथ्वी-अप्-तेऊ-वायु-साधारण वनस्पतिकाय) अन्तर्मुहूर्त आयुष्य वाले, सूक्ष्म, अद्दश्य (देखने में न आएँ) सम्पूर्ण लोक में निश्चय से होते (ही) हैं ॥१४॥ संख कवड्डय गंडुल, जलोय चंदणग अलस लहगाइ, । मेहरि किमि पूयरगा, बेइंदिय माइवाहाइ ॥ १५ ॥ शंख, कौड़ी, गंडोल, (पेट में पैदा होने वाले मल्हप) जोंक, अक्ष, भूनाग, लालयक आदि (और) काष्ठ के कीड़े, कृमि, पूरा, मातृवाहिका इत्यादि द्वीन्द्रिय जीव हैं ॥ १५ ॥ गोमी मंकण जूआ, पिपीलि उद्देहिया य मक्कोडा,। इल्लिय घयमिल्लीओ, सावय गोकीडजाइओ ॥ १६ ॥ गद्दहय चोरकीडा, गोमयकीडा य धनकीडा य,। कुंथु गोवालिय इलिया, तेइंदिय इंदगोवाई ॥ १७ ॥ ___ कानखजूरा, खटमल, जूं-लीख, चींटी, दीमक, मकोडा, इल्लीय (लड) धृतेलिका, चर्मयूका और गोकीट की जातियाँ, गर्दमक विष्ठा के कीड़े, गोबर के कीड़े, घून, कुंथु, गोपालिका, सुरसली एवं इन्द्रगोप इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव हैं ॥ १६-१७ ॥ जीवविचार

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