Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 31
________________ थोवा नपुंस सिद्धा, थी नर सिद्धा कमेण संखगुणा, । इअ मुक्खतत्तमेअं, नवतत्ता लेसओ भणिआ ॥ ५० ॥ नपुंसक लिंगी सिद्ध थोड़े हैं, स्त्री लिंगी सिद्ध और पुरुष लिंग सिद्ध अनुक्रम से संख्यात गुणा हैं । इस प्रकार यह मोक्षतत्त्व है। नवतत्त्व संक्षेप में कहे गए हैं ॥ ५० ॥ जीवाइ नवपयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं, । भावेण सद्दहतो, अयाणमाणे वि सम्मत्तं ॥ ५१ ॥ जीव आदि नव पदार्थो को जो जानता है, उसे सम्यक्त्व होता है । बोध के बिना भाव से श्रद्धा रखने वाले को भी सम्यक्त्व होता है ॥ ५१ ॥ सव्वाइं जिणेसर भासिआई, वयणाई ननहा हुंति, । इअ बुद्धी जस्स मणे, सम्मत्तं निच्चलं तस्स ॥ ५२ ॥ श्री जिनेश्वर प्रभु के द्वारा कहे गये सभी वचन असत्य (अन्यथा) नहीं होते, (अर्थात् सभी वचन सत्य ही होते हैं) ऐसी बुद्धि (श्रद्धा) जिनके हृदय में हो, उसका सम्यक्त्व दृढ़ है ॥ ५२ ॥ अंतोमुहुत्तमित्तंपि, फासिअं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं, । तेसिं अवड्ड पुग्गल, परिअट्टो चेव संसारो ॥ ५३ ॥ जिन जीवों को अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व का स्पर्श हो जाता है उनका संसार निश्चित ही अपार्द्ध पुद्गल परावर्त्त जितना बाकी रह जाता है ॥ ५३ ॥ ३० जीवविचार-नवतत्त्व

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