Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री सुधर्मास्वामीने नमः ॥ अहो ! श्रुतम् - स्वाध्याय संग्रह [१] जीवविचार-नवतत्त्व [ गाथा और अर्थ ] -: प्रकाशक : श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार साबरमती, अहमदाबाद Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री सुधर्मास्वामीने नमः ॥ अहो ! श्रुतम् - स्वाध्याय संग्रह [१] ...................... जीवविचार-नवतत्त्व [गाथा और अर्थ] -: कर्ता :जीवविचार-कर्ता : वादिवेतालश्री शान्तिसूरिजी नवतत्व-कर्ता : चिरंतनाचार्य (पूर्वाचार्य) अनुवादकार : पंडित हीरालाल दुगड जैन -: संकलन :श्रुतोपासक -: प्रकाशक :श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार शा. वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, साबरमती, अहमदाबाद-३८०००५ फोन : २२१३२५४३, ९४२६५८५९०४ E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार प्रकाशन : संवत २०७४, द्वि.ज्येष्ठ सुद-५ वैराग्यदेशनादक्ष प.पू.आ.भ.श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के दीक्षादिन पर अर्पण... आवृत्ति : प्रथम ज्ञाननिधि में से पू. संयमी भगवंतो और ज्ञानभंडार को भेट... गृहस्थ किसी भी संघ के ज्ञान खाते में २० रुपये अर्पण करके मालिकी कर सकते हैं। प्राप्तिस्थान : (१) सरेमल जवेरचंद काईनफेब (प्रा.) ली. 672/11, बोम्बे मार्केट, रेलवेपुरा, अहमदाबाद-380002 फोन : 22132543 (मो.) 9426585904 (२) कुलीन के. शाह आदिनाथ मेडीसीन, Tu-02, शंखेश्वर कोम्पलेक्ष, कैलाशनगर, सुरत (मो.) 9574696000 (३) शा. रमेशकुमार एच. जैन A-901, गुंदेचा गार्डन, लालबाग, मुंबई-12. (मो.) 9820016941 (४) श्री विनीत जैन जगद्गुरु हीरसूरीश्वरजी जैन ज्ञानभंडार, चंदनबाला भवन, 129, शाहुकर पेठ पासे, मीन्ट स्ट्रीट, चेन्नाई-1. (मो.) 9381096009, 044-23463107 (५) शा. हसमुखलाल शान्तीलाल राठोड 7/8, वीरभारत सोसायटी, टीम्बर मार्केट, भवानीपेठ, पूना. (मो.) 9422315985 मुद्रक : किरीट ग्राफिक्स, अहमदाबाद (मो.) ९८९८४९००९१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवविचार भुवण-पईवं वीरं, नमिऊण भणामि अबुह - बोहत्थं । जीव- सरूवं किंचि वि, जह भणियं पुव्व - सूरिहिं ॥ १ ॥ भुवन (संसार) में दीपक के समान भगवान श्री महावीर स्वामी को नमस्कार करके, जैसा पूर्वाचार्यों (पूराने आचार्यों) ने कहा है (वैसा) जीव के स्वरूप से अज्ञ जीवों को ज्ञान कराने के लिये मैं कहता हूं ॥१॥ जीवा मुत्ता संसारिणो य, तस थावरा य संसारी, I पुढवी जल जलण वाऊ, वणस्सई थावरा नेया ॥ २ ॥ मोक्ष में गये हुए और संसार में रहने वाले दो प्रकार के जीव हैं । त्रस और स्थावर संसारी जीव हैं । पृथ्वी पानी अग्नि वायु और वनस्पति को स्थावर (जीव ) जानना चाहिये ॥ २ ॥ - - फलिहमणिरयण विदुम, हिंगुल हरियाल मणसिल रसिंदा, । कणगाई धाउ सेढी, वन्निय अरणेट्टय पलेवा ॥ ३ ॥ अब्भय तूरी ऊसं, मट्टी - पाहाण - जाइओ णेगा, । सोवीरंजण लूणाई, पुढवि - भेआई इच्चाइ ॥ ४॥ जीवविचार ३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फटिक, मणि, रत्न, प्रवाल, हिंगुल, हरताल, मैनसील, पारा, सोना आदि धातुएँ, खड़िया, हरमची (सोना गेरु), पत्थरों के टुकडों से मिली हुई सफेद मिट्टी, पलेवक अबरक, तूरी (फटकडी), क्षार, मिट्टी और पत्थर की अनेक जातियाँ, सुरमा नमक, ( १ ) इत्यादि पृथ्वीकाय (जीवों) के भेद ( हैं ) ॥ ३-४ ॥ भोमंतरिक्ख- मुदगं, ओसा हिम करग हरितणू महिया, । हुति घणोदहिमाई, भेयाणेगा य आउस्स ॥ ५ ॥ भूमि का और आकाश का पानी, ओस, बर्फ, ओले, हरी वनस्पति के ऊपर फटकर निकला हुआ पानी, छोटे छोटे जल के कण जो बादलों से गिरते हैं अथवा कोहरा तथा घणोदधि आदि अप्काय (जीवों) के अनेक भेद हैं ॥ ५ ॥ इंगाल जाल मुम्मुर, उक्कसणि कणगविज्जुमाइआ । अगणि-जियाणं भेया, नायव्वा निउण-बुद्धिए ॥ ६ ॥ अंगार, ज्वाला, कंडे अथवा मरसाय की गरम राख में रहने वाले अग्निकण, उल्कापात, आकाश से गिरने वाली चिनगारियाँ, आकाश से तारों के समान बरसते हुए अग्नि के कण, बिजली इत्यादि अग्निकाय जीवों के भेद सूक्ष्म बुद्धि से समझने योग्य हैं ॥ ६॥ ४ जीवविचार-नवतत्त्व Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उब्भामग उक्कलिया, मंडलि मह सुद्ध गुंजवाया य,। घण-तणु-वायाईआ, भेया खलु वाउकायस्स ॥ ७ ॥ ____ऊँचा बहने वाला, नीचे बहने वाला, गोलाकार बहनेवाला, आँधी, मंद बहने वाला, गुंजार करता हुआ वायु, घणवात और तनवात आदि वायुकाय जीवों के भेद हैं ॥ ७ ॥ साहारण पत्तेया, वणस्सइजीवा दुहा सुए भणिया,। जेसिमणंताणं तणू, एगा साहारणा ते उ॥८॥ शास्त्र में वनस्पति (काय) के जीव दो प्रकार के कहे गए हैं - साधारण (वनस्पति काय) और प्रत्येक (वनस्पति काय) । जिन अनन्त (जीवों) का एक शरीर (हो) वे (जीव) तो साधारण वनस्पतिकाय कहलाते हैं ॥ ८ ॥ कंदा अंकुर किसलय, पणगा सेवाल भूमिफोडा य,। अल्लयतिय गज्जर, मोत्थ वत्थुला थेग पल्लंखा ॥९॥ कोमल-फलं च सव्वं, गूढसिराइं सिणाइ-पत्ताइं,। थोहरि कुंआरि गुग्गुलि, गलोय पमुहाई छिन्नरुहा ॥१०॥ (आलू, सूरन, मूली आदि) कन्द, अंकुर, कोपलें, पाँच रंग की फुल्ली जो कि बासी अन्न पर पैदा हो जाती है। सेवाल, वर्षा में पैदा होने वाली छत्राकार वनस्पति, तथा आर्द्रकत्रिक (हरे तीन अद्रक-हल्दी-कचूंरक) गाजर, नागरमोत्था, बथुआ, थेग (नामक कन्द) पालखी सब प्रकार जीवविचार Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कोमल फल, गुप्त नसोंवाले सनादि के पत्ते और काटने पर बो देने से उगें (ऐसे) थूहर, घीकुंआर, गुग्गल, गिलोय आदि (वनस्पतिया) ॥ ९-१० ॥ इच्चाइणो अणेगे, हवंति भेया अणंतकायाणं, । तेसिं परिजाणणत्थं, लक्खणमेअं सुए भणियं ॥ ११ ॥ इत्यादि अनन्तकाय (जीवों) के अनेक भेद हैं । उनको अच्छी तरह से जानने के लिये ये लक्षण (निशानियाँ) शास्त्रों में कहे गए हैं ॥ ११ ॥ (सो लक्षण नीचे की गाथाओं में कहते हैं) गूढसिर-संधि-पव्वं, समभंग-महिरगं च छिन्नरुहं, । साहारणं सरीरं, तव्विवरियं च पत्तेयं ॥ १२ ॥ (जिनकी) नसें, संधियाँ और गाठें गुप्त हों (देखने में न आएँ) जिनको तोड़ने से समान टुकडे हों, जो काटने पर भी उगें (ये सब) साधारण वनस्पतिकाय के शरीर (होते हैं) और इसके विपरीत प्रत्येक वनस्पति काय का (शरीर है) ॥ १२ ॥ एग सरीरे एगो, जीवो जेसिं तु तेय पत्तेया,। फल फूल छल्लि कट्ठा, मूलग पत्ताणि बीयाणि ॥ १३ ॥ जिन (वनस्पतियों) के एक शरीर में एक जीव हो वे तो प्रत्येक (वनस्पतिकाय) हैं और (इसके सात भेद हैं) फल-फूल-छाल-काष्ठ मूल पत्ते और बीज ॥ १३ ॥ जीवविचार-नवतत्त्व Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तेयतलं मुत्तुं, पंचवि पुढवाइणो सयललोए,। सुहुमा हवंति नियमा, अंतमुहुत्ताऊ अहिस्सा ॥ १४ ॥ प्रत्येक वृक्ष (प्रत्येक वनस्पतिकाय) को छोड़कर पृथ्वीकाय आदि पांचों ही (पृथ्वी-अप्-तेऊ-वायु-साधारण वनस्पतिकाय) अन्तर्मुहूर्त आयुष्य वाले, सूक्ष्म, अद्दश्य (देखने में न आएँ) सम्पूर्ण लोक में निश्चय से होते (ही) हैं ॥१४॥ संख कवड्डय गंडुल, जलोय चंदणग अलस लहगाइ, । मेहरि किमि पूयरगा, बेइंदिय माइवाहाइ ॥ १५ ॥ शंख, कौड़ी, गंडोल, (पेट में पैदा होने वाले मल्हप) जोंक, अक्ष, भूनाग, लालयक आदि (और) काष्ठ के कीड़े, कृमि, पूरा, मातृवाहिका इत्यादि द्वीन्द्रिय जीव हैं ॥ १५ ॥ गोमी मंकण जूआ, पिपीलि उद्देहिया य मक्कोडा,। इल्लिय घयमिल्लीओ, सावय गोकीडजाइओ ॥ १६ ॥ गद्दहय चोरकीडा, गोमयकीडा य धनकीडा य,। कुंथु गोवालिय इलिया, तेइंदिय इंदगोवाई ॥ १७ ॥ ___ कानखजूरा, खटमल, जूं-लीख, चींटी, दीमक, मकोडा, इल्लीय (लड) धृतेलिका, चर्मयूका और गोकीट की जातियाँ, गर्दमक विष्ठा के कीड़े, गोबर के कीड़े, घून, कुंथु, गोपालिका, सुरसली एवं इन्द्रगोप इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव हैं ॥ १६-१७ ॥ जीवविचार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउरिंदिया य विच्छू, ढिंकुण भमरा य भमरिया तिड्डा, । मच्छिय डंसा मसगा, कंसारी कविल डोलाई ॥१८॥ बिच्छू, ढिंकुण, भौंरा, बरें, टिड्डी तथा मक्खी-मधु मक्खी, डांस, मच्छर, कंसारिका, मकड़ी, डोलक (हरे रंग की टिड्डी) आदि चार इन्द्रियों वाले (चतुरिन्द्रिय) (जीव हैं) ॥१८॥ पंचिंदिया य चउहा, नारय तिरिया मणुस्स देवा य, । नेरइया सत्तविहा, नायव्वा पुढवी-भेएणं ॥१९॥ और पांच इन्द्रियों वाले (जीव) चार प्रकार के हैं - नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । पृथ्वी के भेद से नरक में रहने वाले जीव सात प्रकार के जानना ॥ १९ ॥ जलयर थलयर खयरा, तिविहा पंचिंदिया तिरिक्खा य,। सुसुमार मच्छ कच्छव, गाहा मगरा य जलचारी ॥ २० ॥ पानी में रहने वाले, पृथ्वी पर रहने वाले, और आकाश में उड़ने वाले तीन प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यंच(हैं) । सूंस, मछली, कछुआ, घड़ियाल और मगरमच्छ पानी में रहने वाले जीव(हैं) ॥ २०॥ चउपय उरपरिसप्पा, भुयपरिसप्पा य थलयरा तिविहा, । गो-सप्प-नउल-पमुहा, बोधव्वा ते समासेणं ॥ २१ ॥ स्थलचर (जमीन पर रहनेवाले) तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव तीन प्रकार के हैं । चार पैरों वाले (चौपाए), छाती के बल जीवविचार-नवतत्त्व Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से चलनेवाले, तथा भुजाओं से चलने वाले । वे संक्षेप से (अनुक्रम से) गाय - बैल, सांप, न्योला आदि जानना चाहिये ॥ २१ ॥ खयरा रोमयपक्खीय, चम्मयपक्खी य पायडा चेव, । नरलोगाओ बाहिं, समुग्गपक्खी विययपक्खी ॥ २२ ॥ रोमों से बने हुए पंखों वाले, और चमड़े से बने हुए पंखों वाले पक्षी खेचर प्रसिद्ध हैं । मनुष्यलोक (अढाई द्वीप) से बाहर डब्बे के समान सिकुड़े हुए पंखों वाले (तथा) फैले हुए पंखों वाले (पक्षी) होते हैं ॥ २२ ॥ सव्वे जल-थल-खयरा, समुच्छिमा गब्भया दुहा हुँति, । कम्मा-कम्मगभूमि-अंतरदीवा मणुस्सा य ॥ २३ ॥ ___ सब (हरेक प्रकार के) जलचर, स्थलचर, खेचर, (जीव) दो प्रकार के सम्मूच्छिम (और) गर्भज होते हैं । (तथा) कर्मभूमि, अकर्मभूमि, एवं अन्तर्वीप में उत्पन्न हुए मनुष्य हैं ॥ २३ ॥ दसहा भवणाहिवई, अट्ठविहा वाणमंतरा हुति, । जोईसिया पंचविहा, दुविहा वेमाणियादेवा ॥ २४ ॥ ___ दस प्रकार के भवनपति, आठ प्रकार के वाणव्यंतरे हैं, ज्योतिष पांच प्रकार के और वैमानिक देवो दो प्रकार के हैं ॥ २४ ॥ जीवविचार Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धा पनरस-भेया, तित्था-तित्थाइ सिद्ध-भेएणं, । एए संखेवेणं, जीव-विगप्पा समक्खाया ॥ २५ ॥ तीर्थ अतीर्थ आदि सिद्धों के भेदों की अपेक्षा से सिद्ध पन्द्रह प्रकार के हैं। ये जीवों के भेद संक्षेप में स्पष्ट समझाए हैं ॥ २५ ॥ एएसि जीवाणं, सरीरमाऊ ठिई सकायम्मि,। पाणा-जोणिपमाणं, जेसिं जं अस्थि तं भणिमो ॥ २६ ॥ इन (पूर्वोक्त) जीवों में जिनको-शरीर, आयु, स्वकाय में स्थिति, प्राण, (और) योनियों का प्रमाण है उसे कहते हैं ॥ २६ ॥ अंगुल-असंख-भागो, सरीर-मेगिदियाण सव्वेसिं,। जोयण-सहस्स-महियं, नवरं पत्तेय-रुक्खाणं ॥ २७ ॥ सभी एकेन्द्रिय जीवों के शरीर (की ऊँचाई) अँगली के असंख्यातवें भाग (जितनी) है। परन्तु प्रत्येक वनस्पतियों का शरीर हजार योजन से (कुछ) अधिक है ॥ २७ ॥ बारस जोयण तिन्नेव, गाउआ जोयणं च अणुक्कमसो,। बेइंदिय तेइंदिय, चउरिदिय देह-मुच्चत्तं ॥ २८ ॥ दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, (और) चतुरिंद्रिय जीवों के शरीर की उचाई (लम्बाई) अनुक्रम से बारह योजन, तीन गव्यूत तथा (एक) योजन है ॥ २८ ॥ जीवविचार-नवतत्त्व Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धणुसयपंच-पमाणा, नेरइया सत्तमाइ पुढवीए,। तत्तो अद्धधूणा, नेया रयणप्पहा जाव ॥ २९ ॥ सातवीं (नरक) पृथ्वी में नारकी जीवों का (शरीर) पांच सौ धनुष्य प्रमाणवाला (है) वहा से रत्नप्रभा तक आधा आधा कम समझना (चाहिये) ॥ २९ ॥ जोयण सहस्समाणा, मच्छा उरगा य गब्भया हुंति, । धणुह-पुहुत्तं पक्खिसु, भुअचारी गाउअ-पुहुत्तं ॥ ३० ॥ मछलियाँ (जलचर जीव) और गर्भज उरःपरिसर्प जीव हजार योजन के प्रमाण वाले होते हैं । पक्षियों में (खेचर जीवों में) धनुष्य पृथक्त्व (तथा) भुजपरिसर्प गव्यूत पृथक्त्व होते हैं ॥ ३० ॥ खयरा धणुहपुहुत्तं, भुयगा उरगा य जोयण पुहुत्तं, । गाउअ पुहुत्त मित्ता, समुच्छिमा चउप्पया भणिया ॥ ३१ ॥ सम्मूछिम खेचर और भूजपरिसर्प धनुष्य पृथक्त्व, उरः परिसर्प योजन पृथक्त्व, व चतुष्पद गव्यूत पृथक्त्व माप वालें कहे गये हैं ॥३१॥ छच्चेव गाउआई, चउप्पया गब्भया मुणेयव्वा, । कोसतिगं च मणुस्सा, उक्कोस सरीर-माणेणं ॥ ३२ ॥ गर्भज - चतुष्पद छ: कोस के जानना चाहिये, और मनुष्य उत्कृष्ट शरीर के प्रमाण की अपेक्षा से तीन कोस (होते हैं) ॥ ३२ ॥ जीवविचार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसाणंतसुराणं, रयणीओ सत्त हुंति उच्चत्तं । दुग दुग दुग चउगेविज्ज, णुत्तरे ईक्किक्क - परिहाणी ॥ ३३ ॥ ईशान (दूसरे ) देवलोक तक के देवताओं की ऊँचाई सात हाथ की है। दो, दो, दो, चार, ग्रैवेयक (और) अनुत्तर ( विमानों के देवों का शरीरमान) एक एक (हाथ) कम है ॥ ३३ ॥ बावीसा पुढवीए, सत्तय आउस्स तिन्नि वाउस्स, । वाससहस्सा दसतरु, गणाण तेऊ तिरत्ताऊ ॥ ३४ ॥ पृथ्वीकाय की, अप्काय की, वायुकाय की, प्रत्येक वनस्पति काय की (क्रमश:) बाईस सात तीन और दस हजार वर्ष की (तथा) तेऊकाय की तीन अहोरात्र की ( उत्कृष्ट ) आयुष्य है ||३४|| — — वासाणि बारसाऊ, बेइंदियाणं, तेइंदियाणं तु, । अउणापन्नदिणाईं, चउरिंदीणं तु छम्मासा ॥ ३५ ॥ दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का आयुष्य (क्रमश:) बारह वर्षों, उनचास दिनों तथा छः मास (महीने) की है ॥ ३५ ॥ सुर-नेरइयाण ठिई, उक्कोसा सागराणि तित्तीसं, । चउपयतिरियमणुस्सा, तिन्नि य पलिओवमा हुति ॥ ३६ ॥ देवता, नारकी, तथा चतुष्पद तिर्यंचों, मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति (क्रमश:) तेतीस सागरोपम एवं तीन पल्योपम की है ॥३६ ॥ १२ जीवविचार - नवतत्त्व Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलयर-उर भुयगाणं, परमाऊ होई पुव्वकोडीओ,। पक्खीणं पुण भणिओ, असंखभागो य पलियस्स ॥३७॥ जलचर, उरपरिसर्प (तथा) भुजपरिसर्प जीवों का उत्कृष्ट आयुष्य करोड़ पूर्व की है, एवं पक्षियों की पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कहा है ॥ ३७ ॥ सव्वे सुहमा साहारणा य समुच्छिमा मणुस्सा य,। उक्कोसजहन्नेणं, अंतमुहुत्तं चिय जियंति ॥ ३८ ॥ सभी सूक्ष्मजीव, साधारण वनस्पतिकाय और संम्मूर्छिम मनुष्य उत्कृष्ट से तथा जधन्य से अन्तर्मुहर्त मात्र जीते हैं ॥ ३८ ॥ ओगाहणाऊ-माणं, एवं संखेवओ, समक्खायं,।। जे पुण इत्थ विसेसा, विसेस-सुत्ताउ ते नेया ॥ ३९ ॥ इस प्रकार अवगाहना और आयुष्य का प्रमाण संक्षेप में कहा गया है। इसमें जो विशेष है सो विशेष सूत्रोंसे जानें ॥ ३९ ॥ एगिदिया य सव्वे, असंख-उस्सप्पिणी सकायम्मि । उववज्जंति चयंति य, अणंतकाया अणंताओ ॥ ४० ॥ सभी एकेन्द्रिय जीव तथा अनन्तकाय जीव अपनी काया में (एक प्रकार के जीव भेद) (क्रमशः) असंख्य और अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी तक उत्पन्न होते एवं मरते हैं ॥ ४० ॥ जीवविचार Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखिज्जसमा विगला, सत्तट्ठभवा पणिदितिरिमणुआ, । उववज्जति सकाए, नारय देवा य नो चेव ॥४१॥ विकलेन्द्रिय (दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) जीव संख्याता वर्षों तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच (तथा) मनुष्य सात अथवा आठ भव तक स्वकाय में (अपनी काया में) उत्पन्न होते हैं । परन्तु नारक और देव (अपनी काया) में उत्पन्न ही नहीं होते ॥ ४१ ॥ दसहा जिआणपाणा, इदिय ऊसास आऊ बलरूवा, । एगिदिएसु चउरो, विगलेसु छ सत्त अढेव ॥ ४२ ॥ ___ जीवों की इन्द्रियाँ, श्वासोश्वास, आयुष्य और बल रूप दस प्रकार के प्राण (होते हैं) एकेन्द्रियों के चार तथा विकलेन्द्रियों के छ: सात और आठ ही (होते हैं) ॥ ४२ ॥ असन्नि सन्निपंचिंदिएसु, नव दस कमेण बोधव्वा, । तेहिं सह विप्पओगो, जीवाणं भण्णए मरणं ॥ ४३ ॥ असंज्ञि (बिना मन वाले) और संज्ञि (मन वाले) पंचेन्द्रिय जीवों को अनुक्रम से नव और दस (प्राण) जानना चाहिये । उनके साथ वियोग (ही) जीवों का मरण कहलाता है ॥ ४३ ॥ एवं अणोरपारे संसारे, सायरम्मि भीमम्मि, । पत्तो अणंतखुत्तो, जीवहिं अपत्त-धम्मेहिं॥४४॥ हलाता १४ जीवविचार-नवतत्त्व Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना आर पार के (अनादि अनन्त) संसाररुपी भयंकर समुद्र में धर्म को प्राप्त किये बिना जीव ने इस प्रकार (प्राणवियोग) अनन्त वार प्राप्त किया है ॥ ४४ ॥ तह चउरासी लक्खा, संखाजोणीण होइ जीवाणं,। पुढवाइणं चउण्हं, पत्तेयं सत्तसत्तेव ॥ ४५ ॥ तथा जीवों की योनियों की संख्या चौरासी लाख है। पृथ्वीकाय आदि चारों की प्रत्येक की (योनि संख्या) सात सात (लाख) है ॥ ४५ ॥ दस पत्तेय-तरूणं, चउदस लक्खा हवंति इयरेसु,। विगलिंदिएसु दो दो, चउरो पंचिंदितिरियाणं ॥ ४६ ॥ चउरो चउरो नारय-सुरेसु मणुआण चउदस हवंति, । संपिंडिया य सव्वे, चुलसी लक्खा उ जोणीणं ॥ ४७ ॥ प्रत्येक वनस्पतिकाय तथा साधारण वनस्पतिकाय (जीवों) की योनियाँ दस और चौदह लाख हैं । विकलेन्द्रिय (दो इन्द्रिय, तेइन्द्रय, चतुरिद्रिय) जीवों की दो-दो, दो पंचेन्द्रिय तिर्यंचो की चार, नारक और देवों की चार चार तथा मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ होती हैं । सब मिलाकर चौरासी लाख योनियाँ होती हैं ॥४६-४७॥ सिद्धाणं नत्थि देहो, न आउकम्मं न पाण-जोणीओ,। साइ अणंता तेसिं, ठिई जिणिंदागमे भणिआ ॥४८॥ जीवविचार Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धों को शरीर नहीं है, आयु कर्म नहीं हैं, प्राण योनियाँ भी नहीं हैं । उनकी स्थिति श्री जिनेश्वर प्रभु के आगमों में सादि अनन्त कही गई है ॥ ४८ ॥ - ➖➖ I काले अणाइ-निहणे, जोणिगहणम्मि भीसणे इत्थ, भमिया भमिर्हिति चिरं, जीवा जिणवयण - मलहंता ॥ ४९ ॥ अनादि अनन्त काल में योनियों के द्वारा गम्भीर और भयंकर इस (संसार) में जिनेश्वर भगवान् के वचन को न पाए हुए जीव बहुत काल तक भ्रमण कर चुके हैं एवं भ्रमण करेंगे ॥ ४९ ॥ ता संपइ संपत्ते, मणुअत्ते दुल्लहे वि सम्मत्ते, । सिरिसंतिसूरिसिट्ठे, करेह भो उज्जमं धम्मे ॥ ५० ॥ इसलिये इस समय दुर्लभ होते हुए भी मनुष्यजन्म तथा सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है, तो हे मनुष्यो ! ( श्री शांतिसूरि महाराज के) ज्ञानादि लक्ष्मी और शांतियुक्त पूज्य पुरुषों के द्वारा उपदेश किये हुए धर्म में उद्यम करो ॥ ५० ॥ एसो जीववियारो, संखेव रुईण जाणणा- हेऊ, । संखित्तो उद्धरिओ, रुद्दाओ सुय - समुद्दाओ ॥ ५१॥ १६ यह जीवविचार संक्षेप रुचि वालों (थोड़ी बुद्धि वाले जीवों) के जानने के लिये अति विस्तृत ( गम्भीर ) शास्त्ररुपी समुद्र से लिया है, और संक्षिप्त किया है ॥ ५१ ॥ जीवविचार - नवतत्त्व Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतत्त्व जीवाजीवा पुण्णं, पावासव संवरो य निज्जरणा, । बंधो मुक्खो य तहा, नवतत्ता हुति नायव्वा ॥ १ ॥ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा तथा बन्ध और मोक्ष (ये) नवतत्त्व जानने योग्य है ॥ १ ॥ चउदस चउदस बायालीसा बासीय हुंति बायाला, । सत्तावन्नं बारस, चउ नव भेया कमेणेसिं ॥ २ ॥ इन नवतत्त्वों के अनुक्रम से १४ - १४ - ४२ - ८२-४२५७ - १२ - ४ और ९ भेद हैं । अर्थात् जीवतत्त्व के १४, अजीव के १४, पुण्यतत्त्व के ४२, पापतत्त्व के ८२, आश्रवतत्त्व के ४२, संवर के ५७, निर्जरातत्त्व के १२, बंधतत्त्व के ४ और मोक्षतत्त्व के ९ भेद हैं ॥ २ ॥ एगविह दुविह तिविहा, चउव्विहा पंच छव्विहा जीवा, 1 चेयण तस इयरेहिं, वेय-गई - करण - काएहिं ॥ ३ ॥ चेतना द्वारा, त्रस और इतर अर्थात् स्थावर भेदों द्वारा, वेद के भेदों द्वारा, गति के भेदों द्वारा, इन्द्रियों के भेदों द्वारा, काय के भेदों द्वारा ; जीव (अनुक्रम से) एक प्रकार, दो प्रकार, तीन प्रकार, चार प्रकार, पांच प्रकार तथा छह नवतत्त्व १७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार के हैं । अर्थात्-जीव अनुक्रम से चेतनरूप एक ही भेद द्वारा एक प्रकार का है। त्रस और स्थावर इन दो भेंदों द्वारा दो प्रकार के है । वेद (स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद) के तीन भेदों से तीन प्रकार के है । गति (नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव) के चार भेदों से चार प्रकार के है । इन्द्रिय (स्पर्शना, रसना, घ्राण चक्षु, श्रोत्र) के पांच भेदों द्वारा पांच प्रकार के है और काय (पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस) के छह भेदों द्वारा छह प्रकार के है ॥ ३ ॥ एगिदिय सुहुमियरा, सन्नियर पणिंदिया य स बि ति चउ, । अपजत्ता पज्जत्ता, कमेण चउदस जिय-ठाणा ॥४॥ सूक्ष्म और इतर अर्थात् बादर एकेन्द्रिय और दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय के साथ संज्ञी और इतर अर्थात् असंज्ञी पंचेन्द्रिय (और ये सभी) अनुक्रम से पर्याप्त और अपर्याप्त (ऐसे) जीव के चौदह स्थानक (भेद) हैं ॥ ४ ॥ नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा, । वीरियं उवओगो य, एअं जीवस्स लक्खणं ॥५॥ ज्ञान, दर्शन और निश्चय से तथा चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण हैं ॥ ५ ॥ आहार सरीरिंदिय, पज्जत्ति आणपाण-भास-मणे, । चउ पंच पंच छप्पिय, इग-विगला-सन्नि-सन्नीणं ॥ ६ ॥ जीवविचार-नवतत्त्व Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार, शरीर और इन्द्रिय, (ये तीन खास तथा दूसरी) श्वासोच्छ्वास भाषा और मन (ये छह) पर्याप्तियाँ हैं । एकेन्द्रिय जीवों को, विकलेन्द्रिय जीवों को (क्रमशः) चार, पाँच, पाँच तथा छह पर्याप्तियाँ होती हैं ॥ ६ ॥ पणिदिअत्ति बलूसा, साऊ दसपाण चउ छ सग अट्ठ, । इग-दु-ति-चउरिंदीणं, असन्नि-सन्नीण नव दस य ॥७॥ ____ पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल (मन, वचन, काय योग), श्वासोच्छ्वास और आयुष्य ये दस प्राण हैं । (इनमें से) एकेन्द्रिय को, द्वीन्द्रिय को, त्रीन्द्रिय को, चतुरिन्द्रिय को, असंज्ञी पंचेन्द्रिय को, संज्ञी पंचेन्द्रिय को, (क्रमशः) चार, छह, सात, आठ, नौ और दस (प्राण) होते हैं ॥ ७ ॥ धम्माधम्मा-गासा, तिय तिय भेया तहेव अद्धा य, खंधा देस पएसा, परमाणु अजीव चउदसहा ॥ ८ ॥ तीन-तीन भेद वाले धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय तथा काल एवं स्कन्ध, देश, प्रदेश (और) परमाणु, चौदह प्रकार के अजीव (तत्व) हैं ॥ ८ ॥ धम्मा-धम्मा पुग्गल, नह कालो पंच हुँति अजीवा, । चलणसहावो धम्मो, थिर संठाणो अहम्मो य ॥९॥ अवगाहो आगासं, पुग्गलजीवाण पुग्गला चहा, खंधा देस पएसा, परमाणु चेव नायव्वा ॥ १० ॥। नवतत्त्व Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल, ये पाँच अजीव हैं । चलने में (गति करने में) सहाय करने के स्वभाव वाला धर्मास्तिकाय है। स्थिर रहने में सहाय करने के स्वभाव वाला अधर्मास्तिकाय है। पुदगलों और जीवों को अवकाश (स्थान) देने के स्वभाव वाला, आकाशास्तिकाय है। स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु इन चार प्रकारों से ही पुद्गल को जानना चाहिये ॥९-१०॥ सबंधयार उज्जोअ, पभा छायातवेहि अ,। वण्ण गंध रसा फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ ११ ॥ शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप सहित वर्ण, गंध, रस और स्पर्श, ये पुद्गलों के ही लक्षण हैं ॥ ११ ॥ एगाकोडि सत्तसही, लक्खा सतहत्तरी सहस्सा य, । दो य सया सोलहिआ, आवलिआ इग मुहुत्तम्मि ॥ १२ ॥ ____एक मुहूर्त में एक करोड, सडसठ लाख, सत्तहत्तर हजार, दो सौ सोलह से (कुछ) अधिक (१, ६७, ७७, २१६ से कुछ अंश अधिक) आवलिकाएँ होती है ॥ १२ ॥ समयावली मुहुत्ता, दीहा पक्खा य मास वरिसा य,। भणिओ पलिआ सागर, उस्सप्पिणी-सप्पिणी कालो ॥१३॥ समय, आवली, मुहूर्त, दिवस (दिन), पक्ष (पखवाडा), मास (महीना) वर्ष (साल), पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल कहा है ॥ १३ ॥ जीवविचार-नवतत्त्व Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामि जीव मुत्तं, सपएसा एग खित्त किरिया य,। णिच्चं कारण कत्ता, सव्वगय ईयर अप्पवेसे ॥ १४ ॥ परिणामीपन, जीवपन, रूपीपन, सप्रदेशीपन, एकपन, क्षेत्रपन, क्रियापन, नित्यपन, कारणपन, कर्त्तापन, सर्वव्यापीपन और इतर में अप्रवेशीपन (को विचारें) ॥ १४ ॥ सा उच्चगोअ मणुदुग, सुरदुग पंचिंदिजाइ पणदेहा, । आइतितणूणुवंगा, आइम-संघयण-संठाणा ॥ १५ ॥ शातावेदनीय, उच्चगोत्र, मनुष्यद्विक, देवद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, पाँच शरीर, पहले तीन शरीरों के उपांग, पहला संघयण और पहला संस्थान ॥ १५ ॥ वन्न चउक्का-गुरुलहु, परघा उस्सास आय-वुज्जाअं, । सुभखगइ निमिण तसदस, सुरनरतिरिआउ तित्थयरं ॥ १६ ॥ (तथा) वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, श्वासोच्छ्वास, आतप, उद्योत, शुभविहायोगति, निर्माण, त्रस-दशक, देव का आयुष्य, मनुष्य का आयुष्य, तिर्यंच का आयुष्य (और) तीर्थंकरपन ॥१६॥ तस बायर पज्जत्तं, पत्तेय थिरं सुभं च सुभगं च, । सुस्सर आइज्ज जसं, तसाइ-दसगं इमं होई ॥ १७ ॥ स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सौभाग्य, सुस्वर, आदेय और यश, ये त्रस आदि दशक (१०) हैं ॥ १७ ॥ नवतत्त्व Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणंतराय दसगं, नव बीए नीअ साय मिच्छत्तं, । थावर दस निरयतिगं, कसाय पणवीस तिरियदुगं ॥ १८ ॥ ज्ञानावरणीय और अन्तराय मिलाकर दस, दूसरे (दर्शनावरणीय) में नौ, नीचगोत्र, असातावेदनीय, मिथ्यात्व मोहनीय स्थावर दशक, नरकत्रिक पच्चीस कषाय और तिर्यंच द्विक ॥ १८ ॥ इग बि ति चउ जाइओ, कुखगइ उवघाय हुँति पावस्स, । अपसत्थं वण्णचउ, अपढम-संघयण-संठाणा ॥ १९ ॥ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, अशुभ विहायोगति, उपघात, अप्रशस्त वर्णचतुष्क (वर्ण, गंध, रस, स्पर्श), पहले के सिवाय (पाँच) संघयण और (पाँच) संस्थान; ये पापतत्त्व के (भेद) हैं ॥ १९ ॥ थावर सुहुम अपज्जं, साहारण-मथिर-मसुभ दुभगाणि, । दुस्सर-णाइज्ज-जसं, थावरदसगं विवज्जत्थं ॥ २० ॥ स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दौर्भाग्य, दुःस्वर, अनादेय और अपयश, यह स्थावर-दशक (त्रस-दशक से) विपरीत अर्थ वाला है ॥ २० ॥ इंदिअ कसाय अव्वय, जोगा पंच चउ पंच तिन्नि कमा, । किरियाओ पणवीसं, इमा ओ ताउ अणुक्कमसो ॥ २१ ॥ __ इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और योग अनुक्रम से पाँच, चार, पाँच और तीन हैं, क्रिया २५ हैं और वे अनुक्रम से इस प्रकार हैं ॥२१॥ जीवविचार-नवतत्त्व Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काइअ अहिगरणीआ, पाउसिया पारितावणी किरिया, । पाणाइवायरंभिअ, परिग्गहिया मायवत्ती य ॥ २२ ॥ कायिकी क्रिया. अधिकरणिकी क्रिया. प्रादेषिकी क्रिया पारितापनिकी क्रिया, प्राणातिपातिकी क्रिया, आरंभिकी, पारिग्रहिकी क्रिया, और माया प्रत्ययिकी क्रिया ॥ २२ ॥ मिच्छादसणवत्ती, अपच्चक्खाणा य दिट्ठि पुट्ठी अ, । पाडुच्चिअ सामंतो, वणीअ नेसत्थि साहत्थी ॥ २३ ॥ तथा मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिकी, दृष्टिकी, स्पृष्टिकी (अथवा पृष्टिकी-प्राश्निकी), प्रातित्यकी, सामन्तोपनिपातिकी और नैशस्त्रिकी (अथवा नैसृष्टिकी) तथा स्वाहस्तिकी क्रिया ॥ २३ ॥ आणवणि विआरणिआ, अणभोगा अणवकंखपच्चइआ,। अन्ना पओग समुद्दाण, पिज्ज दोसेरियावहिआ ॥ २४ ॥ ___ आज्ञापनिकी, वैदारणिकी, अणाभोगिकी, अनवकांक्षप्रत्ययिकी तथा दूसरी प्रायोगिकी, सामुदानिकी, प्रेमिकी, द्वेषिकी (और) ईर्यापथिकी ॥ २४ ॥ समिइ गत्ति परीसह, जइधम्मो भावणा चरित्ताणि, । पण ति दुवीस दस बार, पंचभेएहिं सगवन्ना ॥ २५ ॥ पाँच, तीन, बाईस, दस, बारह, पाँच भेदों द्वारा समिति, गुप्ति, परिषह, यतिधर्म, भावना और चारित्र (संवर तत्त्व के ये) सत्तावन (५७) भेद हैं ॥ २५ ॥ नवतत्त्व 22 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरिया - भासेसणादाणे, उच्चारे समिईसु अ, । मणगुत्ति वयगुत्ति, कायगुत्ति तहेव य ॥ २६ ॥ पाँच समितियों में ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा- समिति, आदान (आदान भंड मत्त निक्खवणा) समिति और उच्चार ( उत्सर्ग समिति अथवा पारिष्ठापनिका) समिति, तथैव मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति (ये तीन गुप्तियाँ) - कुल मिलाकर ८ प्रवचनमाता ) हैं || २६ ॥ खुहा पिवासासी उन्हं, दंसा चेलारइत्थिओ, । चरिया निसीहिया सिज्जा, अक्कोस वह जायणा ॥ २७ ॥ - क्षुधापरिषह, पिपासा (तृषा) परिषह, शीतपरिषह, उष्णपरिषह, दंशपरिषह, अचेलकपरिषह, स्त्रीपरिषह, चर्यापरिषह, नैषधिकी (स्थान) परिषह, शय्यापरिषह, आक्रोशपरिषह, वधपरिषह, और याचनापरिषह ॥ २७ ॥ अलाभ रोग तणफासा, मलसक्कार परिसहा, । पन्ना अन्नाण सम्मत्तं, इअ बावीस परिसहा ॥ २८ ॥ अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल (और) सत्कारपरिषह ( एवं ) प्रज्ञा, अज्ञान तथा सम्यक्त्व, ये बाईस (२२) परिषह (हैं) ॥ २८ ॥ खंती मद्दव अज्जव, मुत्ती तव संजमे अ बोधव्वे, । सच्चं सोअं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥ २९ ॥ जीवविचार - नवतत्त्व २४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा, मार्दव, आर्जव (नम्रता), निर्लोभता (निरालापन), तपश्चर्या, संयम, सत्य, पवित्रता, अकिंचनत्त्व और ब्रह्मचर्य, ये यतिधर्म (मुनिधर्म) जानने चाहिये ॥ २९ ॥ पढम-मणिच्च-मसरणं, संसारो एगया य अन्नत्तं, । असुइत्तं आसव, संवरो य तह निज्जरा नवमी ॥ ३० ॥ पहली अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व और अशुचित्व, आश्रव और संवर तथा नौवीं निर्जरा (भावना) है ॥ ३० ॥ लोगसहावो बोही, दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिहा, । एआओ भावणाओ, भावेअव्वा पयत्तेणं ॥ ३१ ॥ __ लोकस्वभाव, बोधि और धर्म के साधक अरिहंत भी दुर्लभ हैं, ये (बारह) भावनाएँ प्रयत्नपूर्वक भानी चाहिए ॥३१॥ सामाइअत्थ पढम, छेओवट्ठावणं भवे बीयं, । परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह संपरायं च ॥ ३२ ॥ अब पहला सामायिक, दूसरा छेदोपस्थापनिक तथा परिहारविशुद्धि और सूक्ष्म संपराय चारित्र हैं ॥ ३२ ॥ तत्तो अ अहक्खायं, खायं सव्वंमि जीवलोगम्मि, । जं चरिऊण सुविहिआ, वच्चंति अयरामरं ठाणं ॥ ३३ ॥ नवतत्त्व Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा उन चारित्रों के बाद यथाख्यात अर्थात् सर्व जीवलोक में प्रसिद्ध चारित्र है। इस यथाख्यात चारित्र का पालन करके सुविहित जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥ ३३ ॥ अणसण-मूणोअरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ,। कायकिलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ ॥ ३४ ॥ अनशन ऊनोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता ये बाह्य तप हैं ॥ ३४ ॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ, । झाणं उस्सग्गो वि अ, अब्भिंतरओ तवो होइ ॥ ३५ ॥ ___प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य और स्वाध्याय, ध्यान, उसी तरह कायोत्सर्ग भी आभ्यन्तर तप हैं ॥ ३५ ॥ बारस विहं तवो निज्जरा य बंधो चउ-विगप्पो अ, । पयई-द्विइ-अणुभाग-प्पएस-भेएहिं नायव्वो ॥ ३६ ॥ ___बारह प्रकार के तप (संवर और) निर्जरा हैं तथा प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग (रस) बंध और प्रदेश बंध के भेदों से बंध चार प्रकार के जानें ॥ ३६ ॥ पयइ सहावो वुत्तो, ठिइ कालावहारणं,। अणुभागो रसो णेओ, पएसो दलसंचओ ॥ ३७ ॥ प्रकृति-स्वभाव कहा है, काल का निश्चय स्थिति है, अनुभाग रस जानना और दलिकों का संग्रह अथवा समुदाय प्रदेशबन्ध है ॥ ३७ ॥ २६ जीवविचार-नवतत्त्व Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड - पडिहार - सि-मज्ज, हड - चित्त - कुलाल - भंडगारीणं, । जह एएसिं भावा, कम्माण वि जाण तह भावा ॥ ३८ ॥ पट्टी, द्वारपाल, तलवार, मदिरा (शराब), बेडी, चित्रकार, कुम्हार और भंडारी (कोषाध्यक्ष) जैसे स्वभाव वाले है वैसे ही आठ कर्मों के स्वभाव को भी जानो ॥ ३८ ॥ इह नाण- दंसणा-वरण, वेय- मोहाउ- नाम - गोआणि, I विग्धं च पण नव दु, अट्ठवीस चउ तिसय दु पणविहं ॥ ३९ ॥ यहाँ पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, एक सौ तीन, दो (और) पाँच प्रकार वाले (अनुक्रम से) ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, और अन्तराय (कर्म) हैं ॥ ३९ ॥ नाणे अ दंसणावरणे, वेअणिए चेव अंतराए अ, । तीस कोडाकोडी, अयराणं ठिइ अ उक्कोसा ॥ ४० ॥ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय (कर्म) की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है ॥ ४० ॥ सत्तरि कोडाकोडी, मोहणीए वीस नामगोएसु, । तित्तीसं अयराई, आउट्टि बंध उक्कोसा. ॥ ४१ ॥ मोहनीय कर्म का सत्तर (७०) कोडाकोड़ी, नाम और गोत्र कर्म का बीस कोड़ाकोड़ी तथा आयुष्य कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तैंतीस सागरोपम का है ॥ ४१ ॥ नवतत्त्व २७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारस मुहुत्त जहन्ना, वेयणिए अट्ठ नामगोएसु, । सेसाणंतमुहत्तं, एयं बंधट्टिइ-माणं ॥ ४२ ॥ वेदनीय कर्म की जधन्य स्थिति बन्ध १२ मुहूर्त, नाम तथा गोत्र कर्म का ८ मुहूर्त, और शेष (पाच) कर्मों का अन्तमुहूर्त यह स्थितिबंध का प्रमाण है ॥ ४२ ॥ संतपय-परूवणया, दव्वपमाणं च खित्त-फुसणा य, । कालो अ अंतरं भाग, भावे अप्पाबहुं चेव ॥ ४३ ॥ सत्पदप्ररुपणा, द्रव्यप्रभाण और क्षेत्र, स्पर्शना, काल तथा अंतर, भाग, भाव, अल्पबहुत्व निश्चय (से अनुयोग द्वार) हैं ॥ ४३ ॥ संतं सुद्धपयत्ता, विज्जतं खकुसुमव्व न असंतं, । मुक्खत्ति पयं तस्स उ, परूवणा मग्गणाइहिं ॥ ४४ ॥ "मोक्ष' सत् है, शुद्ध पद होने से विद्यमान है, आकाश के फूल के समान अविद्यमान नहीं है । "मोक्ष" इस प्रकार का पद है और मार्गणा आदि द्वारा इसका विचार होता है ॥ ४४ ॥ गइ इंदिए अकाए, जोए वेए कसाय नाणे य, । संजम दंसण लेसा, भव सम्मे सन्नि आहारे ॥ ४५ ॥ ___ गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या और भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञी तथा आहार (ये १४ मार्गणाएँ हैं) ॥ ४५ ॥ र-नवतत्त्व Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरगइ पणिदि तस भव, सन्नि अहक्खाय खइअसम्मत्ते, । मुक्खोऽणाहार केवल, दंसणनाणे न सेसेसु ॥ ४६ ॥ मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रसकाय, भव्य, संजी, यथाख्यात चारित्र, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहार, केवल दर्शन और केवल ज्ञान, इन मार्गणाओं में मोक्ष है और शेष मार्गणाओं में नहीं है ॥ ४६ ॥ दव्वपमाणे सिद्धाणं, जीव-दव्वाणि हंतिऽणंताणि, । लोगस्स असंखिज्जे, भागे इक्को य सव्वेवि ॥ ४७ ॥ सिद्धों के द्रव्यप्रमाण द्वार में-अनन्त जीवद्रव्य हैं । लोक के असंख्यातवें भाग में एक जीव और सभी जीव होते हैं ॥ ४७ ॥ फुसणा अहिया कालो, ईग सिद्ध-पडुच्च साइओणतो, । पडिवायाऽभावाओ, सिद्धाणं अंतरं नत्थि ॥ ४८ ॥ स्पर्शना अधिक है, एक सिद्ध की अपेक्षा से सादि अनन्त काल है। प्रतिपात (संसार में पुनरागमन) का अभाव होने से सिद्धों में अन्तर नहीं है ॥ ४८ ॥ सव्वजियाणमणते, भागे ते तेसिं दसणं नाणं, । खइए भावे परिणामिए, अ पुण होई जीवत्तं ॥ ४९ ॥ वे सिद्ध जीव सर्व जीवों के अनन्तवें भाग हैं । उन सिद्धों का ज्ञान और दर्शन क्षायिक भाव का है और जीवत्व पारिणामिक भाव से है ॥ ४९ ॥ नवतत्त्व २९ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोवा नपुंस सिद्धा, थी नर सिद्धा कमेण संखगुणा, । इअ मुक्खतत्तमेअं, नवतत्ता लेसओ भणिआ ॥ ५० ॥ नपुंसक लिंगी सिद्ध थोड़े हैं, स्त्री लिंगी सिद्ध और पुरुष लिंग सिद्ध अनुक्रम से संख्यात गुणा हैं । इस प्रकार यह मोक्षतत्त्व है। नवतत्त्व संक्षेप में कहे गए हैं ॥ ५० ॥ जीवाइ नवपयत्थे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं, । भावेण सद्दहतो, अयाणमाणे वि सम्मत्तं ॥ ५१ ॥ जीव आदि नव पदार्थो को जो जानता है, उसे सम्यक्त्व होता है । बोध के बिना भाव से श्रद्धा रखने वाले को भी सम्यक्त्व होता है ॥ ५१ ॥ सव्वाइं जिणेसर भासिआई, वयणाई ननहा हुंति, । इअ बुद्धी जस्स मणे, सम्मत्तं निच्चलं तस्स ॥ ५२ ॥ श्री जिनेश्वर प्रभु के द्वारा कहे गये सभी वचन असत्य (अन्यथा) नहीं होते, (अर्थात् सभी वचन सत्य ही होते हैं) ऐसी बुद्धि (श्रद्धा) जिनके हृदय में हो, उसका सम्यक्त्व दृढ़ है ॥ ५२ ॥ अंतोमुहुत्तमित्तंपि, फासिअं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं, । तेसिं अवड्ड पुग्गल, परिअट्टो चेव संसारो ॥ ५३ ॥ जिन जीवों को अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व का स्पर्श हो जाता है उनका संसार निश्चित ही अपार्द्ध पुद्गल परावर्त्त जितना बाकी रह जाता है ॥ ५३ ॥ ३० जीवविचार-नवतत्त्व Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , उस्सप्पिणी अनंता, पुग्गल - परिअट्टओ मुणेअव्वो । तेणंतातीअद्धा, अणागयद्धा अनंतगुणा ॥ ५४ ॥ अनन्त उत्सर्पिणियों तथा अवसर्पिणियों का १ पुद्गल परावर्त्तकाल जानना, ऐसे अनन्त पुद्गल परावर्त्तन अतीत काल और उससे अनंत गुणा अनागत काल है ॥ ५४ ॥ जिणअजिण तित्थऽतित्था, गिहि अन्न सलिंग थीनर नपुंसा, । पत्तेअ सयंबुद्धा, बुद्धबोहिय इक्कणिक्का य. ॥ ५५ ॥ जिन सिद्ध, अजिन सिद्ध, तीर्थ सिद्ध, अतीर्थ सिद्ध, गृहस्थ सिद्ध, अन्य लिंग सिद्ध, स्वलिंग सिद्ध, स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, नपुंसक लिंग सिद्ध, प्रत्येक बुद्ध सिद्ध, स्वयं बुद्ध सिद्ध, बुद्धबोधित सिद्ध, एक सिद्ध और अनेक सिद्ध (ये सिद्ध के १५ भेद हैं) ॥ ५५ ॥ जिणसिद्धा अरिहंता, अजिणसिद्धा य पुंडरिआ पमुहा, । गणहारि तित्थसिद्धा, अतित्थसिद्धा य मरुदेवी ॥ ५६ ॥ जिनसिद्ध तीर्थंकर भगवान हैं, अजिनसिद्ध पुंडरिक गणधर आदि, तीर्थसिद्ध, गौतमादि गणधर तथा अतीर्थ सिद्ध मरुदेवी माता हैं ॥ ५६ ॥ गिहिलिंगसिद्ध भरहो, वक्कलचीरी य अन्नलिंगम्मि, । साहू सलिंगसिद्धाथी - सिद्धा चंदणा - पमुहा ॥ ५७ ॥ नवतत्त्व ३१ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्ती गृहलिंग सिद्ध हैं । वल्कलचीरी तापस अन्यलिंग सिद्ध है। साधु स्वलिंग सिद्ध है और चन्दनबाला आदि स्त्रीलिंग सिद्ध हैं ॥ ५७ ।। पुंसिद्धा गोयमाइ, गांगेयाइ नपुंसया सिद्धा, । पत्तेय-सयंबुद्धा, भणिया करकंडु-कविलाइ ॥ ५८ ॥ गौतम गणधर आदि पुरुष सिद्ध, गांगेय आदि नुपंसक सिद्ध, करकंडु मुनि प्रत्येक बुद्ध सिद्ध और कपिल आदि स्वयंबुद्ध सिद्ध हैं ।। ५८ ॥ तह बुद्धबोहि गुरुबोहिया य इगसमय एग सिद्धा य, । इग समये वि अणेगा, सिद्धा ते-णेग सिद्धा य ॥ ५९ ॥ तथा गुरु से बोध पाया हुआ, वह बुद्धबोधित सिद्ध है और एक समय में एक ही सिद्ध होने वाला एक सिद्ध है एवं एक समय में अनेक सिद्ध भी होते हैं, वे अनेक सिद्ध कहलाते हैं ॥ ५९ ॥ जइआ य होइ पुच्छा, जिणाणमग्गंमि उत्तर तरया । इङ्कस्स निगोयस्स, अणंतभागो य सिद्धिगओ ॥६० ॥ जिनेश्वर के शासन में जब-जब इस प्रकार का प्रश्न पुछा जाता है, तब तब यही उत्तर होता है कि एक निगोद का अनन्तवां भाग ही मोक्ष में गया हैं । %3D aci ३२ जीवविचार-नवतत्त्व Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :ज्ञान द्रव्य से लाभार्थी : श्री मुनिसुव्रतस्वामी श्वेताम्बर मूर्ति पूजक जैन संघ 210/212, कोकरन बेसिन रोड, विद्यासागर ओसवाल गार्डन, कुरूक्कुपेट, चेन्नई 600021 KIRIT GRAPHICS 09898490091