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नरगइ पणिदि तस भव, सन्नि अहक्खाय खइअसम्मत्ते, । मुक्खोऽणाहार केवल, दंसणनाणे न सेसेसु ॥ ४६ ॥
मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रसकाय, भव्य, संजी, यथाख्यात चारित्र, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहार, केवल दर्शन
और केवल ज्ञान, इन मार्गणाओं में मोक्ष है और शेष मार्गणाओं में नहीं है ॥ ४६ ॥ दव्वपमाणे सिद्धाणं, जीव-दव्वाणि हंतिऽणंताणि, । लोगस्स असंखिज्जे, भागे इक्को य सव्वेवि ॥ ४७ ॥
सिद्धों के द्रव्यप्रमाण द्वार में-अनन्त जीवद्रव्य हैं । लोक के असंख्यातवें भाग में एक जीव और सभी जीव होते हैं ॥ ४७ ॥ फुसणा अहिया कालो, ईग सिद्ध-पडुच्च साइओणतो, । पडिवायाऽभावाओ, सिद्धाणं अंतरं नत्थि ॥ ४८ ॥
स्पर्शना अधिक है, एक सिद्ध की अपेक्षा से सादि अनन्त काल है। प्रतिपात (संसार में पुनरागमन) का अभाव होने से सिद्धों में अन्तर नहीं है ॥ ४८ ॥ सव्वजियाणमणते, भागे ते तेसिं दसणं नाणं, । खइए भावे परिणामिए, अ पुण होई जीवत्तं ॥ ४९ ॥
वे सिद्ध जीव सर्व जीवों के अनन्तवें भाग हैं । उन सिद्धों का ज्ञान और दर्शन क्षायिक भाव का है और जीवत्व पारिणामिक भाव से है ॥ ४९ ॥
नवतत्त्व
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