Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 17
________________ सिद्धों को शरीर नहीं है, आयु कर्म नहीं हैं, प्राण योनियाँ भी नहीं हैं । उनकी स्थिति श्री जिनेश्वर प्रभु के आगमों में सादि अनन्त कही गई है ॥ ४८ ॥ - ➖➖ I काले अणाइ-निहणे, जोणिगहणम्मि भीसणे इत्थ, भमिया भमिर्हिति चिरं, जीवा जिणवयण - मलहंता ॥ ४९ ॥ अनादि अनन्त काल में योनियों के द्वारा गम्भीर और भयंकर इस (संसार) में जिनेश्वर भगवान् के वचन को न पाए हुए जीव बहुत काल तक भ्रमण कर चुके हैं एवं भ्रमण करेंगे ॥ ४९ ॥ ता संपइ संपत्ते, मणुअत्ते दुल्लहे वि सम्मत्ते, । सिरिसंतिसूरिसिट्ठे, करेह भो उज्जमं धम्मे ॥ ५० ॥ इसलिये इस समय दुर्लभ होते हुए भी मनुष्यजन्म तथा सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है, तो हे मनुष्यो ! ( श्री शांतिसूरि महाराज के) ज्ञानादि लक्ष्मी और शांतियुक्त पूज्य पुरुषों के द्वारा उपदेश किये हुए धर्म में उद्यम करो ॥ ५० ॥ एसो जीववियारो, संखेव रुईण जाणणा- हेऊ, । संखित्तो उद्धरिओ, रुद्दाओ सुय - समुद्दाओ ॥ ५१॥ १६ यह जीवविचार संक्षेप रुचि वालों (थोड़ी बुद्धि वाले जीवों) के जानने के लिये अति विस्तृत ( गम्भीर ) शास्त्ररुपी समुद्र से लिया है, और संक्षिप्त किया है ॥ ५१ ॥ जीवविचार - नवतत्त्व

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