Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 22
________________ परिणामि जीव मुत्तं, सपएसा एग खित्त किरिया य,। णिच्चं कारण कत्ता, सव्वगय ईयर अप्पवेसे ॥ १४ ॥ परिणामीपन, जीवपन, रूपीपन, सप्रदेशीपन, एकपन, क्षेत्रपन, क्रियापन, नित्यपन, कारणपन, कर्त्तापन, सर्वव्यापीपन और इतर में अप्रवेशीपन (को विचारें) ॥ १४ ॥ सा उच्चगोअ मणुदुग, सुरदुग पंचिंदिजाइ पणदेहा, । आइतितणूणुवंगा, आइम-संघयण-संठाणा ॥ १५ ॥ शातावेदनीय, उच्चगोत्र, मनुष्यद्विक, देवद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, पाँच शरीर, पहले तीन शरीरों के उपांग, पहला संघयण और पहला संस्थान ॥ १५ ॥ वन्न चउक्का-गुरुलहु, परघा उस्सास आय-वुज्जाअं, । सुभखगइ निमिण तसदस, सुरनरतिरिआउ तित्थयरं ॥ १६ ॥ (तथा) वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, श्वासोच्छ्वास, आतप, उद्योत, शुभविहायोगति, निर्माण, त्रस-दशक, देव का आयुष्य, मनुष्य का आयुष्य, तिर्यंच का आयुष्य (और) तीर्थंकरपन ॥१६॥ तस बायर पज्जत्तं, पत्तेय थिरं सुभं च सुभगं च, । सुस्सर आइज्ज जसं, तसाइ-दसगं इमं होई ॥ १७ ॥ स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सौभाग्य, सुस्वर, आदेय और यश, ये त्रस आदि दशक (१०) हैं ॥ १७ ॥ नवतत्त्व

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