Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 26
________________ क्षमा, मार्दव, आर्जव (नम्रता), निर्लोभता (निरालापन), तपश्चर्या, संयम, सत्य, पवित्रता, अकिंचनत्त्व और ब्रह्मचर्य, ये यतिधर्म (मुनिधर्म) जानने चाहिये ॥ २९ ॥ पढम-मणिच्च-मसरणं, संसारो एगया य अन्नत्तं, । असुइत्तं आसव, संवरो य तह निज्जरा नवमी ॥ ३० ॥ पहली अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व और अशुचित्व, आश्रव और संवर तथा नौवीं निर्जरा (भावना) है ॥ ३० ॥ लोगसहावो बोही, दुल्लहा धम्मस्स साहगा अरिहा, । एआओ भावणाओ, भावेअव्वा पयत्तेणं ॥ ३१ ॥ __ लोकस्वभाव, बोधि और धर्म के साधक अरिहंत भी दुर्लभ हैं, ये (बारह) भावनाएँ प्रयत्नपूर्वक भानी चाहिए ॥३१॥ सामाइअत्थ पढम, छेओवट्ठावणं भवे बीयं, । परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह संपरायं च ॥ ३२ ॥ अब पहला सामायिक, दूसरा छेदोपस्थापनिक तथा परिहारविशुद्धि और सूक्ष्म संपराय चारित्र हैं ॥ ३२ ॥ तत्तो अ अहक्खायं, खायं सव्वंमि जीवलोगम्मि, । जं चरिऊण सुविहिआ, वच्चंति अयरामरं ठाणं ॥ ३३ ॥ नवतत्त्व

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