Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ काइअ अहिगरणीआ, पाउसिया पारितावणी किरिया, । पाणाइवायरंभिअ, परिग्गहिया मायवत्ती य ॥ २२ ॥ कायिकी क्रिया. अधिकरणिकी क्रिया. प्रादेषिकी क्रिया पारितापनिकी क्रिया, प्राणातिपातिकी क्रिया, आरंभिकी, पारिग्रहिकी क्रिया, और माया प्रत्ययिकी क्रिया ॥ २२ ॥ मिच्छादसणवत्ती, अपच्चक्खाणा य दिट्ठि पुट्ठी अ, । पाडुच्चिअ सामंतो, वणीअ नेसत्थि साहत्थी ॥ २३ ॥ तथा मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिकी, दृष्टिकी, स्पृष्टिकी (अथवा पृष्टिकी-प्राश्निकी), प्रातित्यकी, सामन्तोपनिपातिकी और नैशस्त्रिकी (अथवा नैसृष्टिकी) तथा स्वाहस्तिकी क्रिया ॥ २३ ॥ आणवणि विआरणिआ, अणभोगा अणवकंखपच्चइआ,। अन्ना पओग समुद्दाण, पिज्ज दोसेरियावहिआ ॥ २४ ॥ ___ आज्ञापनिकी, वैदारणिकी, अणाभोगिकी, अनवकांक्षप्रत्ययिकी तथा दूसरी प्रायोगिकी, सामुदानिकी, प्रेमिकी, द्वेषिकी (और) ईर्यापथिकी ॥ २४ ॥ समिइ गत्ति परीसह, जइधम्मो भावणा चरित्ताणि, । पण ति दुवीस दस बार, पंचभेएहिं सगवन्ना ॥ २५ ॥ पाँच, तीन, बाईस, दस, बारह, पाँच भेदों द्वारा समिति, गुप्ति, परिषह, यतिधर्म, भावना और चारित्र (संवर तत्त्व के ये) सत्तावन (५७) भेद हैं ॥ २५ ॥ नवतत्त्व 22

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34