Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 18
________________ नवतत्त्व जीवाजीवा पुण्णं, पावासव संवरो य निज्जरणा, । बंधो मुक्खो य तहा, नवतत्ता हुति नायव्वा ॥ १ ॥ जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा तथा बन्ध और मोक्ष (ये) नवतत्त्व जानने योग्य है ॥ १ ॥ चउदस चउदस बायालीसा बासीय हुंति बायाला, । सत्तावन्नं बारस, चउ नव भेया कमेणेसिं ॥ २ ॥ इन नवतत्त्वों के अनुक्रम से १४ - १४ - ४२ - ८२-४२५७ - १२ - ४ और ९ भेद हैं । अर्थात् जीवतत्त्व के १४, अजीव के १४, पुण्यतत्त्व के ४२, पापतत्त्व के ८२, आश्रवतत्त्व के ४२, संवर के ५७, निर्जरातत्त्व के १२, बंधतत्त्व के ४ और मोक्षतत्त्व के ९ भेद हैं ॥ २ ॥ एगविह दुविह तिविहा, चउव्विहा पंच छव्विहा जीवा, 1 चेयण तस इयरेहिं, वेय-गई - करण - काएहिं ॥ ३ ॥ चेतना द्वारा, त्रस और इतर अर्थात् स्थावर भेदों द्वारा, वेद के भेदों द्वारा, गति के भेदों द्वारा, इन्द्रियों के भेदों द्वारा, काय के भेदों द्वारा ; जीव (अनुक्रम से) एक प्रकार, दो प्रकार, तीन प्रकार, चार प्रकार, पांच प्रकार तथा छह नवतत्त्व १७

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