Book Title: Jeevvichar Navtattva
Author(s): Hiralal Duggad Jain
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 15
________________ संखिज्जसमा विगला, सत्तट्ठभवा पणिदितिरिमणुआ, । उववज्जति सकाए, नारय देवा य नो चेव ॥४१॥ विकलेन्द्रिय (दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) जीव संख्याता वर्षों तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच (तथा) मनुष्य सात अथवा आठ भव तक स्वकाय में (अपनी काया में) उत्पन्न होते हैं । परन्तु नारक और देव (अपनी काया) में उत्पन्न ही नहीं होते ॥ ४१ ॥ दसहा जिआणपाणा, इदिय ऊसास आऊ बलरूवा, । एगिदिएसु चउरो, विगलेसु छ सत्त अढेव ॥ ४२ ॥ ___ जीवों की इन्द्रियाँ, श्वासोश्वास, आयुष्य और बल रूप दस प्रकार के प्राण (होते हैं) एकेन्द्रियों के चार तथा विकलेन्द्रियों के छ: सात और आठ ही (होते हैं) ॥ ४२ ॥ असन्नि सन्निपंचिंदिएसु, नव दस कमेण बोधव्वा, । तेहिं सह विप्पओगो, जीवाणं भण्णए मरणं ॥ ४३ ॥ असंज्ञि (बिना मन वाले) और संज्ञि (मन वाले) पंचेन्द्रिय जीवों को अनुक्रम से नव और दस (प्राण) जानना चाहिये । उनके साथ वियोग (ही) जीवों का मरण कहलाता है ॥ ४३ ॥ एवं अणोरपारे संसारे, सायरम्मि भीमम्मि, । पत्तो अणंतखुत्तो, जीवहिं अपत्त-धम्मेहिं॥४४॥ हलाता १४ जीवविचार-नवतत्त्व

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