Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 124
________________ १२० जैनधर्म की कहानियाँ उन्हें हिलाते हुए एवं किसी ने नाना प्रकार की चेष्टायें करते हुए उनसे कहा - "हे नाथ! आप हमारे रूप-लावण्य को एक बार प्रसन्नतापूर्वक देखो तो सही, हमारे इन कोमल हाथों को स्पर्श करके देखो तो सही? आप जरा नेत्र तो खोलिये, हमारी मधुर वाणी को जरा तो सुनिये।" वैरागी कुमार तो नेत्र, कर्ण आदि को एकदम बंद करके ऐसे शांत बैठे हैं, मानो वधुओं के वचनों की तरफ उनका लक्ष्य ही नहीं है। चारों वधुओं की अति-अति आग्रहपूर्ण चेष्टाओं पर कुछ विचार करने के बाद कुमार उठकर जाने लगे, तब चारों वधुओं ने हाथ जोड़कर विनय पूर्वक उन्हें रोका। चारों वधुओं ने कुमार के वैरागी हृदय को परख लिया कि 'अब कुमार डिगने वाले नहीं अतः नवपरिणीता वे वधुयें बोलीं - "हे स्वामिन ! हम सभी ने आपको निहार कर ऐसा अनुभव किया कि मानो स्वामी के विशाल नेत्रों में चंचलता रहित अत्यंत शांत एवं गंभीर समुद्र लहरा रहा हो। मानो साक्षात् मुक्तिपति ही हमारे स्वामी हुए हैं। हे मुक्तिपति ! हम चारों अनाथ दासियों के नाथ! हम सब आपको देखकर एवं आपका समागम पाकर कृतार्थ हो गए हैं। हमारे नयन आपको देखकर पवित्र हो गये हैं। हे स्वामिन् ! हमें अपने सत्संग से कृतार्थ कीजिए।" तब कुमार जाते-जाते कुछ रुके और पुन: पद्मासन लगाकर बैठ गये। बैठे हुए कुमार की नासाग्र दृष्टि आत्मानंद में तृप्त मुद्रा देखकर ऐसा लगता था, मानो वस्त्रोपसर्ग वेष्टित मुनिराज ही विराजे हों। उन्हें देख चारों कन्याओं का मन अत्यन्त निर्मलता को प्राप्त हो गया। शास्त्रपाठी अत्यन्त निपुण चित्त वाली पद्मश्री साहस करके मधुर वचनों में बोलने लगी - “हे चरमशरीरी नाथ! आप जैसे अध्यात्म रस में रंगे-पगे साक्षात् द्रव्यभगवान को अपने पति के रूप में पाकर हम चारों प्रमुदित हैं। हमारी स्त्री पर्याय सार्थक हो गयी है। वैसे भी हमारे चित्त में आपके सिवाय अन्य किसी की अभिलाषा नहीं थी, अत: अब हम भी आपके चरणारविन्द में आत्मसाधना करना चाहते हैं। हे नाथ! हम सभी आपका अनुसरण करते हुए आत्म-अभ्यास करके श्री वीरप्रभु द्वारा दर्शाये गये परम पवित्र जिनशासन

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