Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 152
________________ १४८ जैनधर्म की कहानियाँ (३) अस्तेय महाव्रत :- जिन पदार्थों का कोई मालिक हो, ऐसे पदार्थ मालिक के दिये बिना ग्रहण नहीं करते। जिन पदार्थों का कोई मालिक न हो, ऐसे जंगल की मिट्टी एवं झरने आदि के सूर्य की किरणों से प्रासुक जल को कभी कदाचित् प्रसंग पड़ने पर बिना दिये ग्रहण करते हैं, हमेशा नहीं। चूंकि उसका कोई स्वामी न होने से उसे लेने में चोरी का दोष नहीं लगता। निश्चय में श्रद्धा एवं स्थिरता दोनों प्रकार से परद्रव्य का ग्रहण छूट गया होने से उन्हें परमार्थ अस्तेय महाव्रत होता है। (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत :- मुनिराज को चेतन, अचेतन, काष्ट, चित्राम आदि की स्त्रियों के भोग का मन-वचन-काय एवं कृत-कारित-अनुमोदना से अर्थात् नव कोटियों से त्याग होता है। मुनिराज अठारह हजार शील गुणों के पालक होते हैं। पूर्व के भोगों को ज्ञानपट पर भी नहीं लाते, वर्तमान में पूर्णरूप से त्याग करते हैं। और भविष्य की वाँछा का भी त्याग करते हैं। तथा ब्रह्मस्वरूप निजात्मा में रमणता करने से वे निश्चय ब्रह्मचर्य महाव्रत के धारक होते हैं। (५) परिग्रह-त्याग महाव्रत :- इसमें अंतरंग एवं बहिरंग के भेद से चौबीस प्रकार के परिग्रह का नवकोटि से त्याग होता है। जब अपरिग्रही ज्ञायक परमात्मा का ग्रहण हो गया, ज्ञान में ज्ञायक की प्रतिष्ठा हो गई, तब कोई भी आकांक्षा शेष न रहने से मुनिराज निश्चय से अपरिग्रही होते हैं। (६-१०) पाँच समिति (६) ईर्या समिति :- ईर्या अर्थात् पथ पर गमन, समिति अर्थात् सम्यक्प्रकार से अवलोकन करके अर्थात् मुनिराज एक धुरा (चार हाथ) प्रमाण भूमि को देखकर दिन में चलते हैं। भव-भय से डरने वाले, कंचन-कामिनी के संग को छोड़कर अपूर्व सहज अभेद चैतन्य-चमत्कार में स्थिर रहकर सम्यक्स्वरूप परिणमित होते हैं, यही परमार्थ से ईर्या समिति है। (७) भाषा समिति :- पैशून्य (चुगली), हास्य, कर्कश, पर-निन्दा और आत्म-प्रशंसारूप वचन के परित्यागी होते हैं अर्थात् मुनिराज हित-मित-प्रिय वचन बोलते हैं, जो श्रोताजनों के - भव्यजीवों के

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