Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 155
________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १५१ सकते हों, ऐसी परिस्थिति बन जाये और चातुर्मास होने से कहीं अन्यत्र विहार भी न कर सकते हों, इत्यादि विषम परिस्थिति में मुनिराज समता के धारी होते हैं। (१४) चक्षुरिन्द्रिय विजय :- सुन्दर या कुरूप आदि वस्तुयें दिखने में आ जावें, संसार में नानाप्रकार के हिंसा कारक प्रसंग दीख जावें, स्त्री आदि के सुन्दर रूप को देखकर, उनके मधुर वचनों को सुनकर, उनकी हाव-भावपूर्ण चेष्टाओं को देखकर विचलित नहीं होते एवं कोई स्तुति-प्रशंसादि करे, अर्घ्य अर्पण करे अथवा कोई घानी में पेले, प्रलयकारी आंधी चल रही हो, कोई सूली पर चढ़ावे, अग्नि में जलाये इत्यादि प्रकार से उपसर्ग-परीषहों में सदा जय-करण-शील होते हैं। (१५) कर्णेन्द्रिय विजय :- कोई शुभ या अशुभ वचन कहे, कठोर मर्म-भेदक भय-उत्पादक या मधुर कर्ण-प्रिय इत्यादि नानाप्रकार के शब्द कहे, परन्तु देहातीत दशा के साधक मुनिकुंजर अपने अतीन्द्रिय ज्ञायक प्रभु की प्रभुता में ही तल्लीन रहते हैं। ___ इसप्रकार बाह्य में अनेक प्रकार से पंचेन्द्रियों के अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंग आ जाने पर भी इन्द्रिय-विजयी संतों का उनके सन्मुख लक्ष्य ही नहीं जाता, उन्हें आत्मिक शाश्वत शांति से बाहर निकलना ही नहीं सुहाता और कदाचित् पुरुषार्थ की कमजोरी वश उपयोग बाहर आ जाता है तो पुन: आत्म-रमणता के बल से अन्दर चले जाते हैं। इन्द्रियों के लक्ष्य से उनके उपयोग की बरबादी नहीं होती, यही इन्द्रिय-विजय है। (१६-२१) छह आवश्यक क्रियायें : अवश्य करने योग्य कार्य को आवश्यक कहते हैं। सम्यक् रत्नत्रय ही नियम से करने योग्य आवश्यक कार्य है, इसलिए परमार्थ से वह एक ही आवश्यक है, परन्तु साधक भूमिका में पुरुषार्थ की कमजोरीवश प्रशस्त राग रूप प्रवर्तन होने से छह प्रकार की आवश्यक क्रियायें होती हैं, क्योंकि धर्मात्माओं को बाह्य निमित्त धर्मायतन एवं धर्मात्मा का ही हुआ करता है, इसलिए ये छह प्रकार की क्रियाएँ भी सहज होती हैं :

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