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जैनधर्म की कहानियाँ
(१६) सामायिक :- समता का आयतन निज ज्ञानानंदमयी आत्मा है, उसमें उपयोग की स्थिरता होना ही परमार्थ सामायिक है और बाह्य में एकांत स्थान में पद्मासन या खड्गासन धारण कर सामायिक
आदि के पाठ करना, पंच परमेष्ठी के नाम का जाप करना, चारों दिशाओं में चार शिरोनति एवं बारह आवर्त तथा नमस्कार आदि क्रिया करना व्यवहार सामायिक है। दोनों प्रकार की सामायिक मुनिराज को सहज होती हैं। सामायिक चारित्र के धनी तपोधनों का जीवन ही सामायिक है। प्रथम कर्तव्य भी यही है। मुनिराज को दिन-रात में चार बार ही सामायिक करना - ऐसा नियम नहीं होता, वे तो चौबीसों घण्टे हर अंतमुहूर्त में प्रमत्त से अप्रमत्त होते ही रहते हैं, इसलिए उन्हें सदा सामायिकवत् क्रिया होती रहती है।
(१७) प्रतिक्रमण :- पूर्व में कमजोरी वश हुए दोषों से अपने उपयोग को वापस निर्दोष स्थिति में लाना अर्थात् स्वभाव में स्थिर होना, यह परमार्थ प्रतिक्रमण है। अशुभ भावों में प्रवर्तन अप्रतिक्रमण है और शुभ भावों में प्रवर्तन प्रतिक्रमण है, परन्तु इन दोनों अप्रतिक्रमण
और प्रतिक्रमण से रहित स्वरूप-स्थिरता रूप तीसरी भूमिका परमार्थ प्रतिक्रमण है। उसमें मुनिराज सतत परायण रहते हैं।
(१८) प्रत्याख्यान :- जो स्वरूप-स्थिरता वर्तमान में प्राप्त है, उसकी क्षण-प्रतिक्षण वृद्धि करना अर्थात् भविष्य में भी निर्दोष ही रहना, यही परमार्थ प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग है। अदोष-निर्दोष ज्ञायक प्रभु की प्रभुता का निरंतर आनंद लेना ही दोषों का त्याग है। अप्रतिहत भाव को धारण करने वाले वीतरागी संतों के पास दोष फटक भी नहीं पाते, उन्हें अस्ताचल की राह ग्रहण कर निःसत्त्व होना ही पड़ता है। अरे, गुणों के निधान में दोष कैसे? नहीं, नहीं, कभी नहीं।
(१९) स्तुति :- अपना साधना की पूर्णता को प्राप्त चौबीसों तीर्थकरों का गुण-स्तवन करना स्तुति है। परमार्थ से स्तुति के योग्य कोई है तो मुझे मेरा भगवान आत्मा ही है। इसलिए जिन-भगवंतो ने मेरा प्रभु मुझे बताया, हे प्रभु! आपके उपकार की महिमा से उपकृत होकर में आपका गुणानुवाद करता हूँ।