Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 157
________________ १५३ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १५३ दर्श-ज्ञान-सुख-बल के नंत स्वामी. छियालीस गुणयुत महाईश नामी। तेरी दिव्य वाणी सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वंसनी मोक्ष दानी॥ (२०) वंदना :- अन्दर में एक ज्ञायक आत्मा का ध्यान और बाहर में एक तीर्थकर प्रभु का गुणगान तथा अपने आठों ही अंगों को नमाकर, झुकाकर नमस्कार करना यह भी व्यवहार से वंदना है। और वंद्य-वंदक भाव के अभाव पूर्वक स्वरूप-लीनता परमार्थ वंदना (२१) कायोत्सर्ग :- निर्ममत्व निज ज्ञायक आत्मा में रमकर काया के प्रति ममत्व का नहीं होना परमार्थ कायोत्सर्ग है। सर्व प्रकार से दिगम्बर दशा ही निर्मोहीपने की प्रतीक है। नानाप्रकार के उपसर्ग, परीषहों के आने पर भी उनका मन-सुमेरु नहीं डिगता है। काया के प्रति ऐसे वर्तते हैं, मानो अशरीरी ही हो गये हों। निश्चय से अपने वश में रहना ही परमावश्यक है, जो कि विविधताओं से रहित है, जिसके कोई भेद नहीं है, जो अभेद स्वरूप है। (२२-२८) शेष सात गुण : (२२) आलुंचन (केशलोंच) :- आत्मिक सुन्दरता में तप्त मुनिराज को मुख-सुन्दरता के कारणभूत ऐसे केशों से क्या प्रयोजन है? अतीन्द्रिय आनंद, वीतरागता, परम शांति ही हमारी सुन्दरता है, शोभा है। शरीर सुन्दर दिखो या मत दिखो, परन्तु केशों से मुझे कुछ भी प्रयोजन नहीं है, इसलिए हिंसा के साधनभूत ऐसे केशों का मुनिराज लुसन कर देते हैं। आलुंचन अर्थात् जिसमें से कुछ लोचा न जा सके, कुछ निकाला न जा सके, कुछ लूटा न जा सके - ऐसा मेरा आत्मा ही वास्तव में आतुंचन है। (२३) अचेलकपना (नग्नत्व) :- मैं स्वरूप से ही अचेलक हूँ। मेरे में दस प्रकार के वस्त्रों का तो तो अभाव ही है, परन्तु वस्त्रों के ग्रहण-त्याग के विकल्पों का भी अभाव है। शाश्वत अचेलक स्वभाव की मग्नता में, बाह्य वस्त्रों का सहज ही त्याग वर्तता है।

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