Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 181
________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र बारह भावना १. अनित्य भावना मैं आत्मा नित्य स्वभावी हूँ, ना क्षणिक पदार्थों से नाता । संयोग शरीर, कर्म, रागादिक, क्षणभंगुर इनका विश्वास नहीं चेतन, अब तो निज की पहिचान निज ध्रुव स्वभाव के आश्रय से, ही जन्म जरा मृतु रोग २. अशरण भावना नहीं | जो पापबंध के हैं निमित्त, वे लौकिक जन तो शरण पर सच्चे देव शास्त्र गुरु भी, अवलम्बन है व्यवहार महीं । निश्चय से वे भी मित्र अहो ! उन सम नित लक्ष करो आत्मन् । निज शाश्वत ज्ञायक ध्रुव स्वभाव ही एकमात्र है अवलम्बन ॥ ३. संसार भावना ये बाह्य लोक संसार नहीं, ये तो मुझ सम सत् द्रव्य नहिं किसी ने मुझको दुःख दिया, ना कोई मुझको निज मोह, राग अरु द्वेषभाव से, दुख अनुभूति की अतएव भाव संसार तजूँ अरु भोगूँ सच्चा सुख भ्राता । करौ । हरो ॥ माना यह भूल १७७ ४. एकत्व भावना मैं एक शुद्ध निर्मल अखण्ड पर से न हुआ एकत्र जिनको निज मान लिया मैने, वे भी तो पर प्रत्यक्ष नहीं स्व-स्वामी सम्बन्ध बने, निज में एकत्व मान करके, अब सुखी अब करे ॥ तक । अविकल ॥ रही मेट्टू भव भव की अरे । कभी । सभी ॥ मेरी । फेरी ॥ ५. अन्यत्व भावना उनमें । अत्यन्ताभाव सदा जो भिन्न चतुष्टय वाले हैं, गुण पर्यय में अन्यत्व अरे, प्रदेश भेद ना है जिनमें ॥ इस सम्बन्धी विपरीत मान्यता, से संसार बढ़ाया निज तत्व समझ में आने से, समरस निज में ही पाया है ॥ है।

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