Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 175
________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १७१ फाड़ते हुए आये। कितनों ने हाथों से मस्तक के बालों को फैला लिया, छाती पर रुण्डमाल डाल ली और हँसने लगे तथा 'इनको मारो, इनको मारो' - ऐसे भयानक शब्द करने लगे। कोई निर्दयी आकाश में खड़े होकर भी दूसरों को प्रेरणा करने लगा कि 'मारो, मारो'। इस तरह पाप में रत राक्षसों ने जैसा मुनिवरों पर उपसर्ग किया, उसका वर्णन नहीं हो सकता है। अतीन्द्रिय आनंद के भोक्ता श्री विद्युच्चर आदि मुनिबरों ने इस नश्वर जीवन को अर्थात् शरीर को क्षणभंगुर जानकर अति शांतभाव से सन्यास धारण कर लिया। वे सब ध्यान में स्थिर हो गये। कितने ही मुनिराज स्वरूप के चिंतन-मनन में और कितने ही मुनिराज निश्चल ध्यान में मेरुपर्वत के समान स्थिर हैं। वे सभी ज्ञानी धर्मात्मा हैं, कर्म-विपाक के ज्ञाता हैं। सभी तपोधनों ने बारह भावनाओं को भाते हुए बाईस प्रकार के परीषहों पर जय प्राप्त की। वे परीषह इसप्रकार हैं : बाईस परीषहजय (१) क्षुधा परीषहजय मुनिराज को अनशनादि तप करते हुए महीनों बीत जाने पर भी भिक्षा की विधि नहीं मिलती। तन एकदम सूखकर लकड़ी जैसा हो जाने पर एवं भूख की असह्य वेदना होने पर भी जो मुनिराज अपने मन में जरा भी शिथिलता नहीं लाते, उन्हें मेरा हाथ जोड़कर नमस्कार हो। (२) तृषा परीषहजय पर के घर भिक्षा को जाना, प्रकृति के विरुद्ध पारणा में पानी आदि न मिलने पर रोगादि की अति तीव्रता होने से गर्मी में अति प्यास से, पित्तादि रोगों के कारण नेत्रादि फिरने लगें तो भी धीर-बीर मुनिराज पानी को नहीं चाहते, मुनिराज तो अपने स्वरूप में मग्न होकर आनंदामृत का पान करते हैं। ऐसे मुनिराज जगत में जयवंत वर्ती।

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