Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 153
________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १४९ कर्णों में अमृत के समान मधुर लगें। परमब्रह्म के अनुष्ठान में निरत मुनिजनों को अन्तर्जल्प से भी बस होओ, बहिर्जल्प की तो बात ही क्या? यही परमार्थ से भाषा समिति है। (८) एषणा समिति :- एषणा अर्थात् भोजन को अच्छी तरह देखकर, शोधकर, ४६ दोष एवं ३२ अंतराय को टालते हुए नवधाभक्ति अर्थात् (१) प्रतिग्रह, (२) उच्चासन, (३) पाद-प्रक्षालन, (४) अर्चन, (५) प्रणाम, (६) मनशुद्धि, (७) वचनशुद्धि, (८) कायशुद्धि और (९) भिक्षाशुद्धि पूर्वक एवं सात गुण (१) श्रद्धा, (२) शक्ति, (३) अलुब्धता, (४) भक्ति, (५) ज्ञान, (६) दया और (७) क्षमा गुणों से युक्त दाता के द्वारा दिया हुआ शुद्ध एवं प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। परमार्थ से भगवान आत्मा में छह प्रकार का अशन न होने से वह अनशन स्वभावी ही है, उसका ग्रहण करना ही परमार्थ से एषणा समिति है। (९) आदान-निक्षेपण समिति :- मुनिराज पीछी, कमंडलु एवं जिनवाणी को देखकर रखते हैं एवं देखकर ही उठाते हैं अर्थात् यत्नाचार पूर्वक क्रिया करते हैं। अपहृत संयमियों को परमागम के अर्थ का पुन: पुन: प्रत्यभिज्ञान होने में कारणूभत ऐसा ग्रन्थ (शास्त्र) वह ज्ञान का उपकरण है। कायविशुद्धि के हेतुभूत शौच के उपकरण कमंडलु एवं संयम के उपकरण पीछी को उठाते-रखते समय उत्पन्न होनेवाली प्रयत्नरूप परिणाम-विशुद्धि ही परमार्थ से आदान-निक्षेपण समिति (१०) प्रतिष्ठापन समिति :- मुनिराज मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं का निर्जन्तु-स्थान अवलोकन करके विसर्जन करते हैं। वास्तव में आत्मा में देह का अभाव होने से अन्न-ग्रहण रूप परिणति नहीं होती, इसलिए मल-मूत्रादि विसर्जन का प्रश्न ही नहीं रहता। वही परमार्थ से प्रतिष्ठापन समिति है। अहो! धन्य मुनिराज आप अपने चैतन्य प्रभु को राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि से एवं मन-वचन-काय से भिन्न जानकर उसी में तन्मय होकर परमार्थ दया के धनी हो गए हो, इसलिए आपकी सभी क्रियायें यत्नाचार पूर्वक सहज होती हैं। आपकी श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र की चर्या निज भगवान आत्मा में होने से अर्थात् सभी की गति आत्मा में

Loading...

Page Navigation
1 ... 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186