Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 150
________________ १४६ जैनधर्म की कहानियाँ क्या तुम अपनी ध्वनियों से मेरे भ्रात के आगमन का संदेश सुना रहे हो? अरे भानु की प्रकाशमयी किरणों! क्या तुम मेरे भ्रात का दर्शन करने उदित हुई हो? अरे हर्षायमान वातावरण! क्या तुम भ्रात-वियोग की अशांति को शमन करने को प्रस्तुत हुए हो? हे वृक्ष-मंडल! क्या आप मेरे भ्रात के आगमन की खुशी में झूम-झूमकर नाच रहे हो?" बस, यही दशा श्री जम्बूकुमार की अपने गुरुवर से मिलने के लिये हो रही है। कुमार वैराग्यमूर्ति पूज्य गुरुवर के निकट पहुँचे। वहाँ वे प्रथम ही गुरुवर को अष्टांग नमस्कार करके उनको तीन प्रदक्षिणा देकर गुरु-चरणों में हाथ जोड़कर खड़े हो गये। कुमार सामने खड़े हो देखते हैं कि गुरुवर ज्ञान-वैराग्य रस में झूल रहे हैं, उनकी मुख-मुद्रा से शांत-प्रशांत रस झर रहा है। कुमार हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर नमस्कार करते हुए बोले - "हे स्वामिन् ! हे नाथ! हे गुरुवर ! मेरा चित्त संसार की अशरणता से, संयोग की अनित्यता से एवं आम्रवों की अशुचिता से थक चुका है, इसलिए हे प्रभुवर! मैं शीघ्र ही आत्मिक अतीन्द्रिय प्रचुर स्वसंवेदन से आत्मा को विभूषित करने के लिए परम पवित्र जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूँ। अत: हे नाथ! मुझ पर कृपा पर अनुगृहीत कीजिए।" चरमशरीरी एवं अंतिम केवली के जीव की पात्रता से तो आचार्यवर परिचित थे ही। आचार्यवर ने उछलते हुए वैराग्य रसमयी परिणामों से युक्त कुमार को वैराग्यरस में प्रचुरता लाने हेतु जिन-दीक्षा की आज्ञा दे दी। कुमार ने गुरुवर की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए तत्काल ही समस्त वस्त्राभूषण अपने शरीर पर से उतार दिये। अपने मुकुट के आगे लटकने वाली पुष्पमाला को तोड़कर इस तरह दूर फेंक दिया, जैसे नाक को छिनक कर दूर फेंक देते हैं। रत्नमयी मुकुट को शीघ्र ही उतारा, मानों उन्होंने मोहरूपी राजा के सर्व मान को ही जीत लिया है। कंठ में से हार इस तरह दूर किया, जैसे अपराधी फाँसी के बंधन को उग्र पुरुषार्थ से तोड़कर समूल नष्ट कर देता है। अंगुलियों में से अंगुठियों को ऐसे दूर किया, जैसे ध्यानस्थ योगी के विकार एवं कर्म निकलकर पलायमान हो जाते

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