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श्री जम्बूस्वामी चरित्र शीतलोपचार करने लगीं। नानाप्रकार के चदन आदि उपचारों द्वारा उन्होंने उनकी मूर्छा दूर की। तब वैराग्य-रस-पिपासु-वधुये बोली - "हे माते ! आप तो समझदार हो, जरा मोह को जीतिए। देखिए श्री सुकुमालस्वामी, वीर हनुमान जैसों की माता यशोभद्रा, अंजना आदि सभी ने अपने पुत्र के पथ को अपने जीवन का सार समझ कर अविलंब उसी मार्ग में प्रयाण किया, जो वास्तव में अनंत सुख का दाता है। अहो! यह वीतरागियों का पथ कितना अलौकिक है। अनादि काल से अनंत भव्य आत्माओं ने अपने जीवन का ध्येय या लक्ष्य-बिन्दु इसी पथ को बनाया था।
अरे, रे!... इस असंगी, नि:संगी, निरालम्बी एवं स्वावलंबी मार्ग की कल्पना भी मोहियों को कैसे हो सकती है? नहीं, नहीं, कदापि नहीं। हे माते ! हम अपने पूर्वभवों को तो छोड़ें, मगर वर्तमान भव में स्त्री, पुत्र, पति, धन, वैभव, राज-पाट आदि अनन्त पर-पदार्थों में मोह कर ही रहे हैं। भला इससे अपने को क्या मिला? क्या कभी हमने निराकुलता की सांस भी ली है? क्या सच्चे सुख की कभी कल्पना भी की है? क्या कभी निर्ग्रन्थों के पंथ की बहार का भी आनंद देखा है? क्या कभी आत्म-दर्शन करके आत्मिक आनंद का स्वाद भी चखा है? यदि नहीं तो अब भी अपने को समय है। चलो, क्यों न अभी ही यह कार्य प्रारंभ कर दिया जाये?"
माता जिनमती पुत्र-वधुओं की आत्महित कारक आनंद दायक बातों को सुनकर मन को शांत करती हुई बोली - "हे दुर्दैव ! तूने मुझे पुत्र-विहीन तो किया ही है, परन्तु क्या वधुओं से भी विहीन करेगा?" ___ कुछ समय बाद अपनी सास को स्वस्थ देख चारों वधुयें बोली - "हे माते! हम चारों ने भी आपको अपनी भावना पहले ही बतलाई थी कि हम सब भी आनंदमयी वीतरागी पंथ में विचरण करके भव के अंत को पाकर अनंत काल तक लोक के अंत में शाश्वत आत्मिक आनंद को भोगेंगी।"
तब माता जिनमती उन्हें समझाते हुए बोलीं - "अरे बेटियों! तुम भी बारंबार ऐसा हठ क्यों करती हो? तुम्हारा यह विचार बिल्कुल विवेकपूर्ण नहीं है। तुम्हारा यह सुकुमाल अग वन-जंगल की सर्दी,