Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Vimla Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 142
________________ १३८ जैनधर्म की कहानियाँ वधुएँ आत्महित-कारक अभूतपूर्व चर्चा से लाभान्वित होती हुई, क्षोभ को तजकर विरक्त-चित्त होती हुई, अपने में कृतकृत्य अनुभव कर रही थीं। सभी प्रफुल्लता से आत्म-हित की साधना करने के लिए गंभीरता से विचारमग्न हैं। अहो धन्य हैं वे वैरागी जम्बूकुमार, जिनके सत्संग से एवं चर्चा से चारों वधुओं का राग-रंग भी उतर गया एवं वे भी वीतरागता के रंग से सरावोर हो गईं। इसप्रकार चारों वधुओं ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की - "हे स्वामिन ! हमने सात फेरे खाकर आपके अनुगमन की जो प्रतिज्ञा की थी, उसे हम मुक्ति पर्यंत निभाना चाहती हैं। हमें भी आज्ञा दीजिए कि हम भी श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा दिग्दर्शित मार्ग पर, श्री वीरभु की देशना में दर्शाये मार्ग पर चलकर आत्महित को प्राप्त हों। हम अब इस मार्ग पर चलने की उत्कृष्ट अभिलाषी हैं। आप हमें आज्ञा देकर कृतार्थ कीजिए।" ___जम्बूकुमार ने प्रसन्नचित्त होकर कहा - "तुम सभी के मंगलमय परिणाम जयवंत हों, फलीभूत हों, साकार हों। तुम्हारे भी रत्नत्रय शोभायमान हो। हे भद्रे! हे आर्ये! हे विरक्त-चित्ताओं! हे मंगलमयी परिणाम की धारकों! तुम सबके अन्दर यह मंगलमयी रत्नत्रय सादि-अनंत काल के लिए शोभायमान हो - ऐसी मैं भावना भाता हूँ। मुझे प्रसन्नता है कि तुम चारों का चित्त भी विषय-भोगों से विरक्त होकर आत्मानुरागी हुआ है, आत्मा में निमग्न होना चाहता है। वह जयवंत वर्ते! जयवंत वर्ते !!" इसी बीच माता फूट-फूट कर पुनः रो पड़ी . "हाय रे हाय ! ये मैंने क्या किया? हाय रे दुर्निवार दैव! तुझे इन चारों सुकुमार कन्याओं पर भी दया नहीं आई ? हाय हाय ! इन चारों की उम्र अब कैसे बीतेगी? अरे रे! मैंने अपने हठाग्रह में इन चारों का जीवन बरबाद कर दिया। हाय रे! कोई भी माँ ऐसा हठाग्रह नहीं करना। यदि उनका पुत्र विरक्त हो तो उसका विवाह मत करना। अपने राग-रंग में रंगाने के लिए उसकी परीक्षा मत लेना। हाय ! हाय ! हे पुत्रियों! तुम्हारी असली अपराधिनी मैं हूँ। सारा अपराध मेरा है। हाय ! हाय! अब मैं क्या करूँ? हे दैव! वचाओ! मेरी

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